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४१६ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. नर नार, होजी प्रनुजीये बदु दीक्षित कखां ॥ ग्रहिया संयमनार, होजी । सहेजें जव सायर तया ॥ १७ ॥ चरण सहस नर नारि, होजी ते दुवा आवक श्राविका ॥ शुरू समकित व्रतधार, होजी ते सद्ये मन नाविका ॥ १७ ॥ एम चतुर्विध संघ, होजी शांतिजिणेसर स्थापियो । समकित रयण अमूल, होजी प्रजुजीयें सदुने आपीयो ॥ १५ ॥ पोरिसि अंतें जिनजाण,होजी देववंदक मांहे बाविया ॥ बीजा वप्र मजार,होजी जगगुरु । सदु मन नावीया ॥२०॥ जिनवरने पाद पीठ,वेसे प्रथम तिहां गणधरु ॥ वीजी पोरसीमांहे, होजी करे व्याख्यान मनोहरु ॥२१॥ संघनी थागल म, होजी कहे कथा अघहारिणी ॥ अंतरंग वात विनोद, होजी धर्म नी स्थिरता कारिणी ॥ २५ ॥ सडतालीशमी ढाल, होजी बठेखमें सोहा मणी॥रामविजय कहे एम,होजी सांजलो पातम हितनणी॥२३॥१७५६॥
॥ दोहो॥ __॥ मोहराजके राजमां, धर्मराजकी थाण ॥ वर्तावे चेतन तदा, जी वित जन्म प्रमाण ॥ १ ॥
॥ढाल घडतालीशमी ॥ ॥ हो प्रतु महेर कर महाराज ॥ ए देशी ॥ देव मानव लोकमांहे, देह नयर मंमाण ॥ मोहनामा वडो नरपति, जगत सदु जस बाण ॥ १ ॥ रे जीव समज सुगुण सुजाण ॥ तुंतो म धर मोहनी घाण, हारे जेम लहे कोडि कल्याण ॥ रे जीव ॥ ए बांकणी ॥ मोद घरणी रंगें परणी माया नामें नारि ॥ तेह वेदुथी उपन्यो सुत,सवल मदन कुमार ॥ रे जी०॥ २ ॥ लोन नामें महामंत्री,क्रोध उबर पास ॥राग हेप महारथी दो, मिथ्यात्व जास खवास ॥ रे जी० ॥३॥ मान नामें वडो गजवर,मोह वाहन जोर ॥ वड्यो इंडियन्यव उपर,करत सवलो शोर ।। रे जी० ॥४॥ विपय त्रवीश मोह धागल,खडे रहत चोवदार । एक एक उमराव पोडे, चढत पाप अहार ॥ रे जी ॥ आठ बांधव राज विलसे, रूप शत अ इवन्न ॥ एक पूढे अनंत वर्गण, मेन चढत गरम ॥ रे जी० ॥ ६ ॥ प्राण वाणिज वमे उनमें, चिन पुर पारद ॥ राज सबलो मोह केरो, माचवे व दह ॥ रे जी० ॥ ७ ॥ नितुणी गुरु उपदेश नींतर, फिरे म , नारद ॥ देहपुरमा धर्म नृपति. लहे प्रवेश प्रत्यद ॥रे जी० ॥ ७॥ ५