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श्री शांतिनाथनो रास खंग बो.
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गुप्तिगुं, साध्यो दे शिवशर्म ॥ ८ ॥ एह अनंतर हेतु बे, शिवपदनो मुनिधर्म ॥ निश्चय समकित धरखो, कणमें दे शिवशर्म॥ ॥ यतः॥ एग दिवसंपि जीवो ॥ ॥ ढाल सडतालीशमी ॥
॥ नलराजारे देश, दोजी पुंगलदूंती पल्हाणीया ॥ देश ॥ निसुलि श्री जिनवाण, होजी कहे चक्रायुध नूपति ॥ तारो हो त्रिभुवन स्वामि, हो जी द्यो मुफ दीक्षा जिनपति ॥ १ ॥ नमियो जवमां जोर, होजी चोर कर्म प्रायां ॥ कड्या कठिन कषाय, होजी काल अनादिना रहे नव्या ॥ २ ॥ जांजो ए दुशमन जोर, होजी कगारो अरिहंत जी ॥ करूँ प्रभु तुमने निहोर, होजी नक्तवत्सल भगवंत जी ॥ ३ ॥ जन्मजरा मरणादि, होजी अंगने दीपित प्रति घणुं ॥ नवगृहथी निस्तार, होजी प्रभुजीगुं तुम यति जणुं ॥ ४ ॥ प्रभु कहे करुणावंत, होजी धर्मे विलंब न कीजीयें ॥ जो मनडुं होय वाम, होजी तो गुचि संयम लीजियें ॥ ५ ॥ सु त स्थापी निज पाट, होजी पत्रीश नृपशुं परवखो ॥ चक्रायुध जिन हाथ, होजी नावें संयम यादवो ॥ ६ ॥ दीधी जिनजीयें दीख, दोजी शीख ग्रहे जिनवर कने || कर जोडी प्रभु पास, होजी पूबे तत्त्व कहो मुने ॥ ७ ॥ तत्त्व कहे उत्तपत्ति, होजी जइ एकांतें चिंतवे ॥ समयसमय ए जीव, नारकी व्यादिक संवे ॥ ८॥ एम उपजता तेह, भुवनत्रय माये नहिं ॥ एम घरी संशय चित्त, होजी प्रभु पासें पूछे जइ ॥ ए ॥ प्रभु प्रकाशो तत्त्व, होजी विगम कहे त्रिभुवन धणी | पुनरपि जर एकांत, होजी विगम विचारे बहुगुणी ॥ १० ॥ सर्व विगम जो होय, हो शून्यपएं तो जग नजे ॥ न रहे जगमां को, होजी वस्तु विगमने उपजे ॥ ११ ॥ पुनरपि पूर्व तत्त्व, होजी स्थिति नांखे शासनपति ॥ समज्या सकल स्वरूप, होजी संशय न रह्यो एक रति ॥ १२ ॥ त्रिपदीने अनुसार, होजी अंग डवालस ते रचे ॥ एम सघलांएक रीति हो द्वादशांग विरचे रुचें ॥१३॥ यावे पठे प्रनुपास, दोजी व्यासनथी जिन उठीया ॥ इ यावे नरि थाल, होजी वासें मन संतुप्रिया ॥ १४ ॥ वास ने प्रभु हाथ, होजी यापे संघने मन रुली ॥ दीये प्रदक्षिणा तीन, होजी प्रभु पूर्वे ते लली लली ॥ १५ ॥ तस शिर स्थापे वास, होजी संघ सहित जिनवर मुद्रा || गए धरपद अधिवास, होजी एम सदुनो कीधो मुदा ॥ १६ ॥ अवर वली
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