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श्री शांतिनाथनो रास खंग बडो.
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॥ २५ ॥ बंधन बोडी तेहनां हे, मूकी ते मृतप्राय || निज बालकने खोलवा हे, वाघण चाली वनमांय ॥ ज० ॥ २६ ॥ पूर्वे अवसर पामीने हे, नागे स्वयं रे कठ ॥ नाही नदीमां जड़ मिल्यो हे, केइक साथनी पं ॥ ० ॥ २७ ॥ अनुक्रमें मंदिर यावियो है, इम चिंतवतो रे चित्त ॥ धनलोनें बहु धरा जम्यो है, न गइ दारि ईति ॥ ० ॥ २ ॥ तिलोनी यति दुःख लहे हे, तेहमां नहिं संदेह ॥ जेहवो गयो तेवो यावियो हे, जीव फरी तुं गेह ॥ ० ॥ २५ ॥ धिक् तुऊने संसारमा हे, रहेता कवण सवाद || नित्य नवी निजवंधुमां है, तुम अवगुण अप वाद ॥ ज० ॥ ३० ॥ नाग्यसंयोगें मुनि मव्या है, लीधो संयमनार ॥ मुनिवर मारग पालतो है, लोन न राखें लगार ॥ ज० ॥ ३१ ॥ स मता सुधी मन धरे हे पाले गुद्धाचार ॥ साधु स्वयंनु पामिया है, सुरपदवी अवतार ॥ ज० ॥ ३२ ॥ दिशिविरमणें नीवडो हे लहे एली परें बहु दुःख || एम जाए। ए व्रत धरो हे, जेम लहो अविचल सुख ॥ ज० ॥ ३३ ॥ बहे खमें पांत्रीशमी है, ढाल बहे व्रत जाण ॥ राम कहे गुणवंतनां हे, करो नित्य नवी वखा ॥ च॥३४॥ इति पष्ठ दिशिविरमणव्रते स्वयं देवकथानकम् ॥६॥ सर्वगाथा ॥ १३८ ॥ श्लोक तथा गाथा मली ॥ ६५॥ ॥ अथ सप्तम जोगोपभोग विरमणव्रत संबंधः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ बारमाहे व्रत सातमुं, गुणव्रत वीजुं सार ॥ कहे प्रभु चक्रायुध प्रत्ये, जविक जीव उपकार ॥ १ ॥ जोजन ने बली कर्म थी, बिदु ने कत्युं तेह || जोग धने उपभोगनुं, मान करो गुणगेह ॥ २ ॥ अनंतकाय वली नयनुं, जोजन वजें जाणि ॥ तेह तो लवलेशी, सुण विस्तार सुजाण ॥ ३ ॥ नक्ष्य तजे सवलुं तज्युं, तेहनां वावीश नाम ॥ पपंचुं वरि एचच विगइ तेम १० हिम वरजो गुणधाम ॥ ४ ॥ ११ विष १श्करगा सवि १३ मृत्तिका, १४रयणीनोजन जाए || १५वदुवीजां मत वावरो, तेम १६नंत १३ संधाए ॥ ५ ॥ १८घोलवडा १ एवायंगणां, २० चणजाएयां फले फूल ॥ ५१ तुफल वलि २श्चलितरस, वर्जे होय सवि शून ॥ ६ ॥ उत्तम गृही न वावरे, ए वावीश अजय || एकावश गुण पूरो सही, कहिये ते सुद ॥ ७ ॥ काय अनंत न वावरे, जिहां अनंतजीव
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