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श्री शांतिनाथनो रास खंग हो.
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धरिए || ४ || परसमयेषि ॥ एकरात्र्युपितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः ॥ नसा सहस्त्रे, वक्तुं शक्या युधिष्ठिर ॥ ५ ॥ एकतचतुरोवेदा, ब्रह्मच ये तु एकः ॥ एकतः सर्वपापानि मयं मांसं तु एकतः॥ ६ ॥ पूर्वटाल निन्नेदिय दो नाग जगंदर, कुरुव नपुंसक रंग जी ॥ वंध्या निंदू विषकन्या तिम, दोये कुशीत जगनंम जी ॥ म० ॥ ३२ ॥ देवव्यने जण कर वे, परनारीने पाएं जी ॥ सात वार सप्तमीयें पहोंचे, एम कहे जिनवर व्याप जी ॥ म० ॥ ३३ ॥ परेषादुः ॥ तस्मादर्मार्थिनिस्त्याज्यं, परदारो पसेचनम् ॥ नयंति परदारस्तु नरकानेकविंशतिं ॥ ७ ॥ पूर्वढाल || निजदारा संतोषीने पण, पर्वदिवस सुविशेष जी ॥ विषय तो परिहार करेवो. पर मतमां पण देख जी ॥ म० ॥ ३४ ॥ यक्तं ॥ विलुपुराणे ॥ चतुर्दश्य टमी चैवा, मावास्या चैत्र पूर्णिमा । पर्यायेतानि राजेंड, रविसंका तिरेव
|| || तैस्त्री मांगसंजोगी, पर्वस्वेतेषु वै पुमान || विएसूत्रनोजनं नाम, प्रयाति नरकं मृतः ॥ ए ॥ पूर्वहाल ॥ वत्रीस उपम कहीं ए व्रत नी, सांजन तस अधिकार जी || नवियण दशमा यंग मकारें, चोथे संवर द्वार जी ॥ म० ॥ ३५ ॥ उहे में ढाल वीशमी, चोया व्रत त्र्यधिकार जी ॥ राम कड़े ए व्रत पालंतां, होवे जयजयकार जी ॥ म० ॥ ३६ ॥ || दाल ॥ सारो सोरत देश देखाउ रखीया ॥ ए देशी || शीलवंत सुगु मोरे मन बसिया ॥ वत्रीश कपम गुणयुत धारी, नाम जपे रे जाये पाप नखीयां रे || श्री० ॥ १ ॥ मुकुट ने कॉम वसन फूल श्वन्न, चंदनम गोसीत रसियां रे || शी० ॥ २ ॥ चं लवण रचणावर रुडो, मणि बैंकर्य
सीयां रे || शी॥ ३ ॥ श्रपवियें करी हेमगिरि मदोटो, सिंधुमांनी चोदा सिरियां रे || शी० || | || दशमे संपेन रमल जलनिधिमां. चनुल नगमां रुचक गिरियां रे ॥ ० ॥ ५ ॥ गजमांहि ऐगवत हरि मृगम, सुरमा वेणुदेव वरिया रे || दी० ॥ ६ ॥ पनरमी उपमनुवनपतिमां, धरणीपर जैम गुण नरिया रे ॥ ० ॥ ७ ॥ सह समदे जेम सोधी, असुर लोकमां सुग्वकरियां रे || जी० ॥ ८ ॥ स्थिति महोटी ब चमसुरी, दानम दान नगरीयां रे ॥ श्री० ॥ २ ॥ दीधमी उपम रंगमांत किती, कही न जाये उत्तरीयां रे ॥ श्री० ॥ १० ॥ वज taarna, हणमहि समयनीयां ॥
० ॥ ११ ॥