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३४० जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. कीयें, मूकी मन विषवाद ॥ १ ॥ धर्म करेंवो धसमसी, नेद चार जस सार ॥ दान शील तप नावना, मोद तणां ए हार ॥ ५ ॥ नेद दोय ते धर्मना, सागार ने अणगार ॥ दशविध कह्यो अणगारनो, धर्म मुक्ति दातार ॥३॥ वीश वसा जिहां पालवी, जीवदया जली जाति ॥ ते मुनि धर्म आराधतां, करे कर्मनो घात ॥ ४ ॥ तेहथी कतरतो कह्यो, कायरने सागार ॥ बार नेद डे तेहना, समकित मूल उदार ॥ ५ ॥ दर्शन मोह कर्मोपशम, आदिथकी उत्पन्न ॥ जीवादिक श्रमान शुरू, समकित वडूं रतन्न ॥ ६ ॥ यक्तं ॥ जिथ अजिथ पुण्य पावा, सव संवर बंध मुरक निकरणा॥जेणं सदहा तयं,सम्म खगाइ बहु नेथा ॥ १ ॥ पूर्वढाल ॥ तत्त्वत्रयनो जे सदा, अध्यवसाय विवेक ॥ ते समकित कहीयें वली; तेहना नेद अनेक ॥ ७ ॥ उक्तं च ॥ अरिहं देवो गुरुणो ॥ सम कित अरिहंत धर्मनुं, मूलचूत निर्धार ॥ ग्रंथमांहे एहनो घणो, नांरख्यो ने विस्तार ॥ ॥ मुविध उविध इत्यादिकें, हादश व्रत आचार ॥ सम कित उत्तर गुण सहित, नंग एहना धार ॥ ए॥ कोडि तेरों उपरें, तेम चोराशी कोडि ॥ वार लाख तस ऊपरें, सहस सत्त्यावीश जोडि ॥ १० ॥ दोय शत दोय कह्या वली, नंग एटला जाण ॥ ए सवैमांही शिरें, समकित प्रथम वरखाण ॥११॥ ए विण एके नंगनो, संजव नो हे तेम ॥ ते माटे अनुजी कह्यु, आगममांहे एम ॥ १२ ॥ अतएवोक्तं ॥ मूलं दार पहाणं, आहारो जायणं निहि ॥ उबकस्लावि धम्मस्त, स म्मत्तं परिकित्तियं ॥पूर्वढाल ॥ कारक रोचक दीपकें, समकित त्रिदुं प्रकार ॥ चारित्री अविरति तथा, मिथ्यादृष्टि विचार ॥ १३ ॥ पंच दोप एहना कह्या, शंका कंख विगिह ॥ तेम पसंत संथव कह्यो, वर्जे समकित संच ॥ १४ ॥ मूल एह साजूं करे, पागल होय विस्तार ॥ समकित मूल व्रत वार जे, एह धर्म सागार ॥१५॥ हवे प्रथम व्रत उपरें, नांखे प्रनु अवदात ।। ते नवियण तुमें सांजलो, मूकी विकथा वात ॥ १६ ॥
॥ ढाल एकवीशमी ॥ ॥ घरे थावी जननी नमे ॥ ए देशी ॥ शांति जिनेश्वर एम कहे, नि सुणो तुमें सार ॥ नरनव हास्यो नवि मले, एह बीजी वार ॥शां॥ १ ॥ व्रत पहेलुं सागारनु, स्थूलप्राणातिपात ॥ विरमण करीये तेहतुं, कहे त्रिल
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