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२४ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. महोटा मति मुंजाय ।। गयो परदेशे वापडो, पण कोइन दीये गाय ॥३॥ मान रहित मेलो मनें, मेती घरनुं राज ॥ करि परघरनी चाकरी, उदर नरेवा काज ॥४॥ हवे नृप मंगलकलशनें, थाप्यो सुतने गम ॥ जुवो जब गति पुण्यनी, पुण्ये सीफे काम॥५॥ तेडाव्यां तेहनां तिहां, मात पिता तेणि वार ॥ सदु परिवारें परवस्यो, विलसे सुख संसार ॥६॥ एहवे दीधी वधा मणी, वनपालक मतिमंत॥ यशोनइ मुनि उपवनें, समवसस्या गुणवंत॥७॥
॥ ढाल तेरमी॥ ॥ वारी मोरा साहेवा ॥ ए देशी ॥ नृप सुंदर सांजली दो राज,रीज्यो धर्मने राग ॥ वारी मोरा साधुजी ॥ ए आंकणी ॥ श्रीगुरुवंदन नीसयो हो राज, आज अजव लह्यो लाग ॥ वा ॥ १ ॥ तारण तरण नवांबुधि हो० ॥ जगमां जेम जहाज ॥ वा ॥ पंचानिगम ते साचवी हो॥
वांदे श्री मुनिराज ॥ वा ॥ २ ॥ दल देखी दिल बन्नस्युं हो ॥ दे दिल - नर उपदेश ॥ वा० ॥ धर्म करो धिंगड घसी हो ॥ यौवन वय सुविशेष
॥वा० ॥ ३ ॥ जर कुट्टी यौवन शशो हो ॥ काल बाहेडी नित्त ॥वा०॥ धर्मी विना धर्मज नहिं हो० ॥ कुशल किहांथी मित्त ॥ वा ॥ ५ ॥ वेदु पिशून वच्चे कूपडं हो ॥ जाइ नजाणो काल ॥ वा ॥ वहेती वारें शोधायें हो ॥ धर्म था उजमाल ॥ वा ॥ ५ ॥ रखे प्रमादने वश पडो हो ॥ धर्म ते शुद्ध स्वनाव ॥ वा ॥ अक्ष अनादिनी चेतना हो ॥ मोह्यो मोह दिनाव ॥ वा० ॥ ६ ॥ दृष्टिविपर्यय थइ रह्यो हो॥ पर उपरें निज नाव ॥ वाण ॥ निजवस्तु ए जाणो नहिं दो० ॥ देखी रहो चेतननाव ॥ वा० ॥ ७॥ गुं पुजलने वश पड्या हो ॥ ए कोण कोण तुम रूप ॥ वा० ॥ निज घर तजी परघर रमो हो ॥ शुं चतुराई रूप ॥ वा० ॥ ७ ॥ मन मानी गुरुदेशना हो ॥ आव्यो नववैराग्य ॥ वा० ॥ कहे श्रीगुरु तारो मुने हो॥ श्राज लह्यो में साग ॥ वा॥ ए ॥ कहे गुरु देवाणुप्पिया हो० ॥ करीयें नवि परमाद ॥ वा ॥ नावसंधी जमतां सही हो ॥ चारखो अनुनवस्वाद ॥ वा० ॥१०॥ यावी मंगलकलशने हो० ॥ सोंपीने निजराज ॥ वा ॥ राजन संयम यादयो हो । यातम साधन काज ॥ वा ॥ ११ ॥ पंच समिति सूधा यति हो॥ मावंत यागार ॥ वा० ॥ शुक्ष निरीह तप धादस्यो हो० ॥ करता उग्र