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३०४ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
॥ ढाल बही॥ ॥ पांच सोपारी लेइ हाथ ॥ ए देशी ॥ हवे एक दिवसने योग, था. युधशालामां ऊपन्यु ॥ चक रतन उत्पन्न, भार सहनै हो शोनतुं ॥ १ ॥ उपन्यो हर्प अपार, सेवक दीध वधामणी ॥ आयुधशालामां चक्र, उपन्युं जयजय जगधणी ॥ ५ ॥ प्रनु निसुणी दिये दान, बात दिवस उत्सव करे, चक्र तणो गुणवाणि, जयकमला कारण शिरें ॥ ३ ॥ चक्र असि बत्र दम, आयुधशालमां ऊपजे ॥ मणि कांगिणी ने हो चर्म, निधि सिरि गेहें नीपजे ॥ ४ ॥ पुरोहित वार्षिकी जाण, सेनापति गाथापति ।। निज नगरें ए चार, रयण तणी कही उत्पत्ति ॥५॥ राजकुलें स्त्रीरत्न, गिरि वैताढये हो गज तुरी ॥ रयण ए जस दश चार, केम टके तेहना अरि ॥ ६॥ आयुधधरथी हो चक्र,चाल्युं वही पथ अंबरें। के. हो शांति दयाल, रयण कटक लेइ संचरे ॥७॥ यद सहस्र समेत,चाल्युं प्रथम पूरव दिशे॥ मागधतीर्थ धासन्न, वेलाकुलें सेना वसे ॥॥ वार्षिकी करे तत्काल, पुर . झादश योजन तणुं ॥ सैन्यने रहेवा हो काज, अतिसुंदर शोना घणुं ॥॥ शुन बासन चक्रधार, वेसे हो मागध सन्मुखें । त्रिदु जगनो रे आधार, जस नामें सदु जग सुखी ॥ १० ॥ ते प्रजुने अनुनाव, जलमांहे झादश योजनें ॥ मागध सुरनु हो ताम, आसन चलियुं चिंते मनें ॥ ११ ॥ जाण्यु अवधि उपयोग, जिनचक्रो इहां धाविया ॥ साधन जरतना खंम, जे सुरपति मन नाविया ॥ १२ ॥ नाग्य सवल मुज याज, जे जिनराज पधारिया ॥ आराधनने हो काल, जानं अगुज निवारीया ॥ १३ ॥ ले धानरण अमूल्य, वस्त्र वली सुरनां नलां ॥ यावे हो बदु परिवार, प्रनु नक्ति जयां देयडलां ॥ १४ ॥ कर जोडी कहे देव, नाथ सुणो त्रिभुवन तणा ॥ ढुं तुम किंकर स्वामी, मुजमां अवगुण घणा ॥ १५ ॥ कर'तु मारी हो सेव,दास थ रहेगुं श्हां । तुम आणा परमाण, रहेगुं हो राखेशो जिहां ॥ १६ ॥ प्रनु सन्मानी हो तास, जक्तवत्सल नगवंत जी ॥ मोक लियो निज गम, पहोतो प्रनु समरंत जी ॥ १७ ॥ नेम दक्षिण दिशि चक्र, चाल्युं हो वाटें धाकाशनी ॥ याव्या दक्षिण दधि तीर, तीरय वर दाम थासनी ॥ १७ ॥ तेन आव्यो सुर तेह, कर जोडी आगल रह्यो । तुं साहिब गुणगेह, तुम दरितण नाग्य लह्यो ॥ १५ ॥ तहने स्थापी