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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
सोंप्यो सिंह सामंतने रे हां, तस रहाने काज ॥ क० ॥ कुमरी कहे सुलो तातजी रे हां, जानं उजेली यान ॥ क० ॥ १८ ॥ कारण कहीश हुं या वीने रे हां, आागलथी शी वात ॥ कं० ॥ दोष न लागे वंशने रे हां, तेम करो इम कहे तात ॥ क० ॥ १५ ॥ सैन्य सहित लेइ सिंहने रे हां, ति हांथी कीध प्रयाण ॥ क० ॥ शोध कारण निज कंतनी रे हां, सुंदरी सु गुण सुजाण ॥ क० ॥२०॥ नावें जवियण सांनलो रे हां, मनोहर दशमी ढाल ॥०॥ राम कहे धन्य जगतमां रे हां, जे रहे मनडुं वाल ॥ ० ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ हवे प्रविचन्न प्रयाणथी, चालतां निर्भीक ॥ खाव्यां केटले एक दिनें, नयरी उणी नजीक ॥ १ ॥ वैरसिंह नृप सांगली, लोक मुखें एम वात ॥ यावे नयरें व्यापणे, चंपानृपनो जात ॥ २ ॥ दल जेइ साहामो चढ्यो, वैरसिंह भूपाल ॥ तेडी लाव्यो कुंवरनें, नयरमांहि उजमाल ॥ ३ ॥ स्वा गत पूबे कुमरने, देई बहु सन्मान ॥ कोण कारण ययुं श्रावनुं, नांखो सु गुणनिधान ॥ ४ ॥ तुम नगरी निरखण तणो, हतो बहू मन कोड | ति कार में याविया, कुमर कहे मद मोड ॥ ५ ॥ राजन कहे नलें याविया, म घर पावन कीध ॥ सप्तभूमि यावासमां, नृप कतारो दीध ॥ ६ ॥ राजसुता तिहां तो रहे, साथ सवल दलपूर || दे यादेश सेवक जणी, प्रह उगते सूर ॥ ७ ॥
|| ढाल अग्यारमी ॥
॥ रामचंदके वाग, चांपो मोरी रह्यो री ॥ ए देशी ॥ तेडी सेवक तेह, कुमरी एम जो री ॥ निरखो नीरनुं गम, जश्नें यत्न घणे री ॥ १ ॥ पूर्व दिशें एक स्वामि, बे जलगम नजूं री ॥ बहुजंतु विश्राम, नूशिर ति लक मनूं री ॥ २ ॥ लहिनृपनो प्रदेश, जलमारग निवसे री ॥ चर्या देख ए काज, कुमरी मन उनसे री ॥ ३ ॥ जल पीवानें काज, एक दिन ते निरखे री ॥ जाता हयवर पंच, मनसायें परखेरी ॥ ४ ॥ ए मुफ तातें दी, हय देखी हरखी री ॥ सीधां वांदित काज, चिंते ते निरखीरी ॥ ५॥ सेव कनें कहे धाम, एह स्वामी तणो री ॥ नाम ठाम निरधार, मुऊ धागे ए जो री ॥ ६ ॥ विनति करी कहे तेह, धनदत्त शेठ तो री ॥ मंगल कलश कुमार, एहेज स्वामी सुणो री ॥ ७ ॥ सिंह जी कहे वात, एह
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