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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. . ॥ विणती काया कोढथी, फरसनो दोप महंत हो ॥ सुं॥ क० ॥२०॥ कुलखंपण ए कुंवरी, कां ए विधाता दीध हो ॥ सुं ॥ देव कुमर सम कंतने, जेणी कोढी कीध हो ॥ सुं० ॥ क ॥ २१ ॥ वात सुपी वि लखो थयो, आव्यो मंत्री आवास हो ॥ सुंग ॥ जामाता देवी करी, दुई मनमांहि उदास हो ॥ सुं० ॥ कण् ॥ २२ ॥ कमैं ए कोढी थयो, पण पुत्री शिर दोष हो ॥ सुं०॥ एह चढयो अति आकरो, कीजें केहो रोष हो ॥ सुंण् ॥ क ॥ २३ ॥ राय कहे मंत्री सुणो, कीबूं में सबल अकाज हो ॥ सुं० ॥ जोरें आपी अंगजा, तुक सुत विणतो आज हो ॥ सुं० ॥ क० ॥ २४ ॥ दोष नहिं कांहिं राजनो, नहिं कांहिं वहूनो वांक हो ॥ सुं० ॥त्रण नुवनमांहे वालियो, कमैं धामो आंक हो ॥ सुं० ॥ क० ॥ २५॥ माटें कहुँ लु स्वामीने, रीप न करशो कोय हो ॥सुं॥ पुत्रीनी पेरें पालये, कर्म करे ते होय हो ॥ सुं० ॥ क० ॥ २६ ॥ कर्मवशे सहुने मनें, वात वसी तेणि वार हो ॥ सुं० ॥ वहाली पण वैरण थर, कोइ न ले तस सार हो ॥ सुं० ॥ क० ॥ २७॥ एक अलाश्धे मंदिरें, रहे ते अवला वाल हो ॥ सुं० ॥ चिंते ए मातुं मरणथी, मुझ माथे ए आल हो ॥ सुं॥ क० ॥ २७ ॥ नवि सुणो नवमी ढालमां, कडु कर्मजंजाल हो ॥ सुं० ॥ रामविजय कहे कोश्ने, कदिये न दीजें आल हो ॥ सुं० ॥ ७ ॥ श्ए ।
॥दोहा॥ ॥ त्रैलोक्यसुंदरी चिंतवे, विरुन कर्मविलास ॥ मुझ माथे भावी पड्यो, वेसी रहे उदास ॥ १ ॥ मुजने मूकीने गयो, वालम नवल सनेह ॥ अवगुण कोइ दाख्यो नहिं, साले मुझने तेह ॥ २ ॥ वली माथे सवलु चढ्यु, कोढी तणुं कलंक ॥ थइ सदुने अलखामणी, कर्मवशे हुँ रंक ॥ ३ ॥ यतः ॥ कुमुदवनमपनि श्रीमदंनोजखम, स्त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः ॥ उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांगुरस्तं, हतविधिसति तानां ही विचित्रो विपाकः ॥ १ ॥
॥ ढाल दशमी ॥ ॥ काची कली अनारकी रे हां ॥ ए देशी ॥ पूरवनव में प्राचखां रे हां, कोइक उरित कठोर ॥ कर्म विडंबना ॥ ए ग्रांकणी ॥ तेह उदय याव्यां यहां रेहां, पियु गयो मूकी निनोर ॥ क० ॥ १॥के में दूध विठोहियां रे हां,