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পদপ
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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
याज सकल निष्फल ययो ॥ १ ॥ खाली केम जानं गेह, बीजो को मलियो नहीं || एम चिंती हणि तेह, वानरी खंधें जेइ चल्यो ॥ २ ॥ जाये घर जी जाम, प्रकट थई कहे वाघलो || नीच कस्युं गुं काम, वि वांके ही वानरी ॥ ३ ॥ पुत्र तणी परें जेण, पापी तुमने पालियो || ह एतां केम करे, तुक दियडुं चाल्युं दहा ॥ ४ ॥ रे पापीया जाए, मुह लेईने जा परो ॥ कृतघ्नी तुक समान, अवर कोई दीठो नहिं ॥ ५ ॥ एम निर्नृबी वाघ, विटने मूकीने गयो | कुकर्मजलधि ताग, घेर याव्यो ते पापीयो ॥ ६ ॥
॥ ढाल प्राठमी ॥
॥ घरे यावोजी खांबो मोरीयो ॥ ए देशी ॥ वात सुणी जनमुख यकी, पुरनाथ कोप्यो ततकाल ॥ जग कडवां कर्म न कीजियें ॥ ए यांकणी ॥ डुं वानर प्रतिपालना, करुं एथयो वानरकाल ॥ ज० ॥ १ ॥ याए लोपी एणें माहरी, ग्रही लावो बांधी मुऊ पास ॥ ज० ॥ काम कर्तुं ए प्राकरूं, नवि जोयुं रे कांही विमासि ॥ ज० ॥ २ ॥ यदुक्तं ॥ याज्ञा जंगो० ॥ राजसेवकें जइ प्राणीयो, मायो महोकम तेणी वार ॥ ज० ॥ हुकम कस्यो मारवा तपो, लेइ चाव्या ते निरधार ॥ ज० ॥ ३ ॥ वाघ मल्यो मारग कहे, एहनुं मारण नहीं युक्त ॥ ज० ॥ सेवकें ज नृपने कयुं, धाव्यो कौतुकथी सुणि वक्ति ॥ ज० ॥ ४ ॥ वाघ कहे पापी घणुं मत मारो एहने राय ॥ ज० ॥ पापी पापें हो आपणे, जेवाये रे एम कहेवाय ॥ ज० ॥ ५ ॥ विस्मय नही राजा कहे, तुम्हें पशु रूपी नरवाणी ॥ ज० ॥ मुऊ मन ए कौतुक घणुं, परकासो तुम्हें गुण खाणी ॥ ज० ॥ ६ ॥ कहे वाघ उद्यानमां यावीया, मुनि नांखो मा हरी वात ॥ ज० ॥ एम कही गयो वाघलो, हरख्यो नृप सुणी अवदात ॥ ज०
|| देशयकी काढयो परो, नरपतियें तेह निपाद ॥ ज० ॥ वहु लोक निनूँढ्यो यति घणुं, गयो धरि मनमां विखवाद ॥ ज० ॥ ८॥ यागमन सुपि गुरुराजनुं, नृप याव्यो वंदन काज ॥ ज० ॥ वेगे यावी ने आगनें, गुरु देशन दे घनगाज ॥ ज० ॥ एए ॥ गुरु कहे शेह न कीजि यें, कोई ऊपर सुण नरचंद ॥ ज० ॥ वली विश्वासीनो शेह जे, सदु पातकमांहे इंद ॥ ज० ॥ १० ॥ नृप अंजलि जोड़ी कहे, प्रभु नांखो निर्म