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श्री शांतिनाथनो रास खंम पांचमो. ३३ ए मूढ वानर तणी, किसी एहगुं यारी ॥ ५० ॥ १७ ॥ वात निसुणी निपा करी, तदा वानरी नाखी ॥ वाघ आगल पडी वापडी, धिक् एह
वा सारखी ॥ ध० ॥ १७ ॥ वाघ कहे खेद नवि कीजियें, कस्यो जेहवो , संग ॥ तेह फल तुमने हू, नहिं नीचथी रंग ॥ ध० ॥ १५ ॥ यमुक्तं ॥ चोपा ॥ नीच तणो नव कीजें संग, जो कीजें तो होवे नंग॥ हाथ थंगारो ग्रहे जेकोय, का दाफे का कालो होय ॥ १ ॥ दोहो ॥ संगति की जें साधुकी, हरे उरकी व्याधि ॥ बी संगति नीचकी, बाते पहोर उपाधि ॥शाश्लोक। गुणिनः समीपवर्ती,पूज्योलोकेषु गुणविहीनोपि ॥ विमलेक्षण प्रसंगा,दंजनमाप्नोति काणादि ॥ ३ ॥ पूर्वढाल ॥ तब उत्पन्नमति वानरी, जणावे निज शाने ॥ हित कढुं प्राण ने माहरां, एह पुतने तारों ॥ध ॥२०॥ आगलथी ग्रहो एहने,पडे अंग तुज हाथे ॥ तेम कहुं तेणे देश पुनने, चढी वृदने माये ॥ध० ॥ २१ ॥ वाघ विलखो थश्ने वट्यो, थयो अदृश्य तिण वेला ॥ उत्तयां उदयी ततहणे, नर वानरी नेलां ॥ ध० ॥२॥ निजलतावास लेई गई, अवगुण न संजाखो ॥ धन्य जगत जिहां एहवां. करे पशु उपकारो ॥ध ॥२३॥ निज शिशु पास मूकी करी, गइ फुल फल लेवा ॥ उष्टं नूखें नरव्यां वाल ते, जून नीचना हेवा । ध ॥ २४ ॥ यउक्तं ॥ गाथा ॥ अलमेव वितुाणं. मुहमेव अहीए तय मंदस्त ॥ दिहि वियं पिसुणाणं, सचं सबस्त जयजयं ॥ ४ ॥ खमीकवि पजालीनवि चुप्लीकवि चुम व ॥ जीहाफलाइनवि दु, जणे दाहं अहो पिसुणो ॥ ५॥ दोहो ॥ जट्टा नूप नुयंगमह, ए मुह महिला इंति॥रीवींनी वाणीयो,पूलें दाह दियंत ॥६॥पूर्वढाला फल ले आवी ते वानरी, सूतो ते नर देखि ॥ पासें निजवाल दीतां नही, पडी ब्रांति सुवि शेप ॥ध ॥ २५ ॥ तोहि उठाडी तेहने दीयां, फल अति घण मीठां ॥ बाल जोवा जणी नीकली, तिए सायें नवि दीवां ॥२६॥ इदगारवाढूंती पूरवें, पापीयें पाडी ॥ वाल नक्षण करयां पण तदा, न बोली किस्युं श्राडी ॥ ३० ॥२७॥ जुवो गुणवंत तिर्यंचमां, कह्या सातमी ढालें ॥धन्य जेन कटयावी पडे,एम निज मन बाले०॥॥२४५॥१७॥
॥ दोहा सोरती ॥ ॥ चिंते उष्ट विचार, मनमां खेदाकुलयको ॥ थहो महारी व्यापार,