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२०६ जैनकथा रत्नकोप नाग आवमो. जेवो हो नावे दाय ॥सुझा॥१॥ वचन सुणी अनिमाननु,मन चिंते रोहक वाल ॥ सु० ॥ विण मान उतारे हो एहनुं, मुज जन्म जीवित घाल ॥सु॥ज्ञा॥१॥ यतः॥अवंध्यकोपस्य निरंतुरापदां, नवंति वश्याः स्वयमेव संपदः ॥ अमर्षशून्येन जनस्य जंतुना, न जातहार्दैन नवि हिपा दरः॥ १ ॥ ज्वलितं न हिरण्यरेतसं, चयमास्कंदति नस्मनां जनः ॥ अनिनूतनयादसूनतः, सुखमुङति न धाममानिनः॥२॥ पूर्वढाल॥ अपराध देश्ने एह शिरें, मुफ जनकने करूं अनिष्ट ॥ सु० ॥ एह मान उतारू हो एहवं, तो मुफ चिंतित होवे इष्ट ॥ सु० ॥ झा० ॥२०॥ नवि सुणो हवे बुद्धि औत्पातिकी, करे रोहक ते अधिकार ॥सु॥ चोथे गणत्रीशमी ढालमां, मतिज्ञान तणो विस्तार॥सुणा झा॥१॥ सर्वगाथा ॥५३॥श्लोक ॥३१॥
॥दोहा॥ .. ॥ एक दिन घरने आगणे, सूता जनक ने जात ॥ यामिनिमां सहसा कहे, अहो अहो नर को जात ॥१॥ घरमांथी को नीसयो, कहे पिता देखाड ॥ ते कहे ते कमी गयो, पाड्यो पिता भ्रममांग ॥॥ रंगशर मन चिंतवे, अहो मुज कुलटा नारि ॥ वृक्षपणे परण्यो सही, मुफने पड्यो धिक्कार ॥३॥ यतः ॥ मूर्खस्य काव्यकरणं, गीतमकंठस्य द्यूतमधनस्य ॥ वृक्षस्य विपयवांबा, परिदासपदानि चत्वारि ॥ १ ॥ एकोगोत्रे स नवति पुमान् यः, कुटुंबं बिनर्ति, सर्वस्य हे सुमतिकुमती संपदापन्निमित्ते ॥ स्त्री पुंवच प्रनवतितरां तस्य गेहं विनष्टं,तो यूना सह परिचयात्त्यज्यते कामिनीनिः॥२॥ उप्पय ॥ एकांकरे अवाज,लाज एकांशुं मंमे॥एकांसोंप देह, नेह एकांमुबमे ॥ एकांकरे संकेत,एक जाली समजावे ॥ तन मन अंतर उर, एक शिर वाय ढोलावे ॥ कामिनी जाति अवगुण घणा,मीते वोलनधीजीयें । इसी निर्लज नफट नारियुं, कबू नेह न कीजीयें ॥१॥ कवित ॥ करिकोकन ॥ रविचरियं ॥ जलमये ॥ इस्युं विचारी नारिद्यु, थयो विरक्त मन तेह ॥ लाख कस्या गुण एहने, पण नहिं मुफ' नेह ॥ ४ ॥
॥ ढाल त्रीशमी ॥ ॥ नदयापुररी राजरंजा, म्हें दीना एक अचंना ॥ ए देशी ॥ रंगरर मन चिंतवे जी, जूती नारी जात ॥ मुह मीठी वातो करे जी, जहेर गले पुनि वात के ॥ १ ॥ रमणी रु.डी राज दीसे, पण ए खांटी विशवा