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२०४ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. साधी कुंवरें ॥ वेदु स्त्रीगुं गुनचित्त, मन मानी मोजें फरे ॥ ६ ॥ जमतो । हिमगिरि ताम, गयो कुमर ते अन्यदा ॥ दीठ विपुलमति नाम, मुनि वि। द्याधर वंशना ॥ ७ ॥ तास चरण प्रणमेवि, प्रिया सहित बहु प्रेममु ॥ वेसे कर जोडेवि, कनकशक्ति बहु विनयशुं ॥ ॥ धर्मतको उपदेश, मुनि । वरजी जांखे नलो ॥ दूरे होय किलेश, शिवसुखनो दायक सही ॥ ए॥ !
॥ ढाल गणीशमी ॥ ॥रे जीन जगत सुपनो जाण ॥ ए देशी ॥ कहे मुनिवर निसुण · प्राणी, कारिमो संसार ॥ ए रूप यौवन पूर जलनु, विसतां नहिं
वार ॥ मनमांहे आशा बहुत धरतो, फरत देश विदेश ॥ धन काज सारो दिवस धावे, धर्म नहिं लवलेश ॥ १ ॥रे जीव चेत चतुर सुजाण ॥ ए
आंकणी ॥ आए माने मोह केरी, जिण कीयो हेरान ॥ प्रपंच पुजल खेल न लहे, ए अनादि पुराण ॥ संयोग एह वियोग साथै, नित्य माने सोय ॥ भ्रम जाल पडियो प्राणीया, युंही गयो नव खोय ॥ रे जी० ॥ ॥ हे गुरू चेतन रूप तेरो, अनंतगुण पर्याय ॥ झदि घटमें प्रगट दीसे, करे सोइ उपाय ॥ निरावरण समाधि जोगी, योगसे चित्त लाय ॥ अानंदघन उपगार तेरो, तुंहि एक सहाय ॥ रे जी० ॥ ३ ॥ करि धर्मवस्तु सनाव जाणी, मोहमिथ्या दूर ॥ ध्येय ध्याता ध्यान एकी,नावथी सुखपूर ॥ नूर प्रगटे विषय विघटे, नेद जाये नासी ॥ यूं गुमधमै साध्य साधन, . । सहज लील विलास ॥ रे जी० ॥ ४ ॥ परजाव पुजन ऊंच कुलमां, रूप ।। लबी विलास ॥ वर कामिनीके नोग सुंदर, वदुरी दासी दास ॥ ठकुराइ चिंतित काम होवे, सवहि माने घाण ॥ धर्मसाधन करत ए फल, आनु । पंगिक जाण ॥ रे जी० ॥ ५ ॥ ज्युं पुण्यसार कुमार पायो, सर्व चिंतित । जोग ॥ वर दिलाधी कीर्ति वाधी, कामिनी संयोग ॥ कहे कनक . . शक्ति कुमार मुनिकों, कहो उनकी वात ॥ कहे ज्ञानी सुन हो प्रानी, पुण्य । सें सुखशात ॥ रे जी॥६॥ ढाल । त्रिभुवन तारण तीरथ पास चिंतामणि रे॥ए देशी ॥ गोपालक पुर क्षेत्र,जरतमां हे दीपतुं रे के॥जरतमाहे दीपतुं॥ सुंदर शोना सार,सवि पुर जीपतुं रे के ॥ स ॥ तिहां धर्मी शिरदार, पुरंदर नामथी रे के ॥ पु० ॥ शेठ वसे गुणवंत, प्रतिको दामथी रे के ॥ प्र० ॥ १ ॥ तस घर पुण्य सिरी इण, नामें पद्मिनी रे के ॥ नामें ॥
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