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श्री शांतिनाथनो रास खंग त्रीजो.
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रे ॥ पाप विरमण नहिं तिल नर, कही यविरति जात रे ॥ क० ॥ ६ ॥ क्रोध मानो माय लोनो, मूल चार कपाय रे || खंति द्यार्जव मुक्ति मार्दव, ए विपर्यय याय रे ॥ क० ॥ ७ ॥ कहुं मदिरा विषय निश, तिम कपाय निवार से || पंचमी विकथा ठांम परही, ए प्रमाद म वधार रे ॥ क० ॥ ७ ॥ योग मन वच काय केरा, जालवो तुमें सार रे ॥ तेरमा गुल गण सुधी, जे रहे निर्धार रे || क॥ ए ॥ हेतु छूटे गुण प्रगटे, करो तास उपाय रे || कहे केवली धर्मनी मति, करो जिम सुख याय रे ॥ क० ॥ १० ॥ नव स्वरूपें अंधकूप, मोह नूपें पाश रे ॥ विषयनामें मांहे पडि या, होय गति मति नाश रे ॥ क० ॥ ११ ॥ एक विषय विलास देतें, जे हणे बहु लोक रे ॥ तेहनां फल दोहिलां ते, सहे परनव रोक रे ॥ क० ॥ १२ ॥ शैव्य सरिखा कह्या विप सम, कामिनीना जोग रे ॥ सुख माने मूढ न लहे, धनादिनो रोग रे ॥ कण् ॥ १३ ॥ एह सुख मधुविंड सरिखुं, ते कटुक विपाक रे || धन्य एथी रह्या लगा, जाली फल किं पाक रे ॥०॥ १४ ॥ कनकसिरि कर जोडी जंपे, कहो सत्य व्यवदात रे ॥ विषय चिंतनयकी दुःख दे, सेविया शी वात रे ॥ क० ॥ १५ ॥ पण कहो कुप कर्म दू, पितर बंधु वियोग रे ॥ कहे नापी सुपो प्राणी, कर्म सब जो रोग रे ॥ क० ॥ १६॥ ढाल चोवीशमी त्रिजे खंकें, रंगें दाखी एह रे ॥ रामविजय कहे सुपो हवे, पूर्वभव सस्नेह रे ॥ क० ॥ १७ ॥ १११ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ कहे कीरतिघर केवली, शुद्ध नाथ उपयोग ॥ देवाप्पिय सांजलो, पुरवकतनी जोग ॥ १ ॥
|| दाल पचीगमी ॥
॥ प्रथम हिरावण दीवो ॥ ए देशी ॥ पूरव धातकीख, शंखपुर नरतं श्र खं ॥ चन्निवंश एक नारी, श्रीदत्ता निरधारी ॥ १ ॥ परवरे करे नित्य काम. यवना खनुं ए चाम ॥ कर्म कमाइनी योग, न मजे वांनि न लोग ॥ २ ॥ एकदिने मुनिवर मलिया, मनह मनोग्य फलिया || कड़े सामी हित दाखां, सुजने जीवती राखो ॥ ३ ॥ कहे मुनि धर्मचक्र बाल, तप करो यजमान ॥ प्रयमम दोष करी, सादीन चोथ पादरी ॥ ४ ॥ देव शुरु क्ति व्यति सारी पूजा सतर प्रकारी ॥ धन