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१२० जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. लो, अणीयाला लोचन ॥ मु० ॥ ॥ गुण निसुणी न व्याकुल वि नता, तरसे मोरं मन ॥ मु० ॥ ३ ॥ प्राण करुं कुरवान ए उपर, साचो ए साजन ॥ मु० ॥ ४ ॥ दिन रयणी दिलथ्यानें लीनो, थावे एह सुपन ॥ मु० ॥ ५ ॥ सागरजल सम तिहां मुज नेलो, सुरसरिता ज्युं धन्य ॥ मु॥ ६ ॥ कहुँ कर जोडी सयानी मोरी, वात सुणो एक तन ॥ मु ॥ ७ ॥ स्तिमितसागर कुल शुचि वयरागर, उपन्यु एह रतन्न ॥ मु ॥ ७॥ मुफ मुःस्थितने आपो आणी, नहिंतर शरण अगन्न ॥ मु० ॥ ए ॥ नइ प्यासी उनको मुख देखन, चातक चाहे ज्युं धन ॥ मु०॥ १० ॥ उन विण र सवे मन मेरे,जनक सहोदर सन ॥ मु० ॥ ११ ॥ लगन लगी मोहे उनके गुनकी, कहा रे कडं वचन ॥ मुण ॥ १२ ॥ में सोंप्युं सवि सहायर एदने, माहीं तन मन धन ॥ मु॥ १३ ॥ जो न मिले मन मोहन मेरो, जाउंगी होय योगन ॥ मु० ॥ १४ ॥ कनक सरिखो पूरण पेखी, प्रगट दुवे परसन ॥ मु०॥ १५॥ कर जोडी कहे हाजर बंदी, अब में तुम आधीन ॥ मु० ॥ १६ ॥ राग विक लता कारक एसो, नांख्यो श्री जगवन्न ॥ मु० ॥ १७ ॥ वात सुणो अव धागे रसीली, कान धरी सूरि जन्न ॥मु॥१॥सर्व०॥६५॥श्लोक॥१२॥
. ॥ दोहा ॥ ॥ कहे हरि जो मुझ नपरें, तुझ मन मान्यु एम ॥ चालो जयें निज पुरी, वेसी विमानें देम ॥१॥ कनकसिरी वलतुं कहे, करे माहरो तात ।। तुमने परानव अति घणो, तेणें मुफ मन शंकात ॥ २ ॥ वोव्या ते वेदु जणा, मत वीहे मनमांहे ॥ अम आगल शो पाशरो, ए कुए गणती माहे ॥ ३ ॥ वचन सुणी विस्मित दुई, पडी प्रेमके पास ॥ रूप शौर्य गुण मोहिता, साथें चली बन्नास ॥ ४ ॥ विद्यावलें की, नवं, सुंदर एक विमान ॥ संचलावे नृप लोकने, उंचा रही असमान ॥ ५ ॥ जो भो सा मंतादिको, सवल सेन जूफार ॥ हरी जाउं दुं नृपसुता, पी कीजो वाहार ॥ ६ ॥ सुणि ततखेव को चढ्यो, कहे प्रतिहरि दमितारि॥रे रे सुजट शीपाइयो, जान न पावे गमार ॥७॥ कनकसिरीको ले चल्यो, तुरत विमान उमाइ ॥ पूंसें वाहर चढी, लियो लपेट अव जा॥ ७ ॥