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पृथ्वीचं अने गुणसागरनुं चरित्र. ३५ हे महाराज! ए वनेचरोने मारवामां आ खूब चांचव्य वापघु, अने आप नामांघपुंज शौर्य ने ? या वगेरे पोतानी प्रशंसा सांजली हर्षथी तेनां रोमां चित उनां थयां. या प्रमाणे मृगयासक्त एवा ते राजकुमारे एक पर्वतनी निकटना वनने विषे जाडमां संताश्वेठेला एक सुवरना बच्चाने दीठो, अने तुतर तेनी पर धनुष्य खेंची बाण मूक्यो, परंतु ते बाण सुवरना बच्चाने न वा गतां जाडनी उथे कामस्सग्गध्याने बेठेला कोइएक साधुने वाग्यो. पनी वीरां गदकुमारे विचाघु जे बाण तो वाग्यो, परंतु जेने बाण वाग्यो ते सुवरनो बालक दीनशब्द करी पड्यो जणायो नहिं. माटे टुं त्यां जश् जो तो खरो, के ते बाण तेनेज वाग्यो , के कोई बीजाने ? एम विचार करी ते एकदम त्यां आवीने ज्यां जोवे, त्यां तो ते सुवरना बच्चाने तो बीलकुल दीतोज नहि. परंतु काउस्सग्गध्याने रहेला, तथा जेना पगमां बाण वागवाथी रुधिर चाल्युं जाय , एवा कोइएक साधुने दीठा, ते देखतांज वीरांगद कुमारने मनमा अत्यंत संन्रम थ गयो, अने ते विचारवा लाग्यो के अरे ! हुँ माहापापी थयो ? अरे ! हुं नर्यकर कर्म करनारो थयो ! कारण के धावा निर्मल, ध्यानासक्त एवा निरपराधथी साधुने में विना कारण बाण मास्यो ! हा ! ! ! हवे हुँ झुं करुं ! क्यां जावं ! ! अरे तो पण कांक ठीक थयुं ? जो कदाचित् या मारा बाणथी बावा उत्तमसाधु मरण शरण थइ गया हत, तो मने घोरातिघोर नरकमां पण स्थानक मलत नहिं ! अर्थात् थनिर्वचनीय एवा नरकःखने नोगवतां, लाखो जन्म थात, तो पण मारो दुःखमांथी पार थावत नहि. एवी रीतनो विलाप करीने ते राजा, ध्यानासक्त एवा ते साधुना चरणमां पडी गयो, अने मोहो टा स्वरथी कहेवा लाग्यो के, हे कारुण्यनिधे ! हे कृपासागर ! ! हे त्रिज गऊन वत्सल ! ! ! पापी, अने उष्टकर्म करनार एवा में, मृगया रमतां आहिं आपनी निकट रहेला एवा सूवरना बच्चाने जो बाण मायो हतो, तो ते बाणना सपाटामाथी सुवरनो बालक तो कोण जाणे क्या सटकी गयो, परंतु ते बाण, निरपराधी एवा आपना चरणमां लागी गयो. माटे ते पापथी तथा जगतमां थता अपयशथी मने कोइपण रीतें मुक्त करो ! कारण के हाल जेवू, में कर्म कहुं बे, तेवा कर्मने कदाचित् कोश उग्र पापी होय, ते पण करे नहिं. पण याप दयालु बो, तेथी मारी पर