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पृथ्वीचंद्र ने गुणसागरनुं चरित्र.
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यावां सयक्तिक ने सप्रमाण वाक्यो हरिवेगनां सांजलीने ब्राह्मणो तो सर्व निरुत्तर, निष्टने चित्रामणमां खालेख्या जेवाज थइ गया. अने पद्मोत्तरकुमार पोतें सुननबोधी होवाथी प्रथम ब्राह्मणमतमां निरादर तो हतोज, परंतु पोतानो पिता ते मतमां होवाथी जरा आदर राखतो हतो, पण या प्रकारां ते हरिवेगनां वाक्य सांजलीने तुरत, ब्राह्मणोना कहेला मतने विषे साव मंदनाववालो थइ गयो. अने मनमां विचारखा लाग्यो के हो ! या पुरुष कां मिंदडो वेचनार माणास नथी, परंतु कोइ महान् पुरुष बे, माटे धर्मनुं स्वरूप या महात्मा पुरुषनेज प्रूनुं, के जेने समजवाथी मारुं कल्याण याय ? अरे ! खटला दिवस सुधी यावा पाखंमी ब्रा ह्मण लोकोयें मने ठग्यो, अने मारुं श्रायुष्य निरर्थकज खोवराव्युं ! एम विचार करीने ते कुमार, रूपांतरधारी हरिवेगने पूढवा लाग्यो के हे मित्र ! जेम राजहंस, कमलवनमां क्रीडा करे, तेमाप कया देव, कया गुरु अने कया धर्मरूपवनने विषे क्रीडा करो हो ? अने आप क्यों रहो हो ? त्यारें हरिवेग बोल्यो के हे नाइ ! सर्व दर्शनोनां शास्त्र हुं सारी रीतें जाएं बुं, परंतु मुने कोइ पण ठेकाणे एक जिनदर्शन विना शुद्ध अने सविवेक, मदायक बीजुं कोई पण दर्शन जोवामां यान्युं नहिं. कारण के सर्वे दर्शनवाला हिंसा न करवी, खोटुं न बोलवं, चोरी न करवी, परस्त्रीगमन न कर, निष्किंचन रहेतुं, एम कहे बे खरा, परंतु तेम ते पालता नथी. अर्थात् ते केवल मुखथीज बोले ले पण तेमांची काहिं पण पालता नथी. जु, के केटलाएक दर्शनवाला, परिग्रहधारी होइने क्रय विक्रय एटले अने क प्रकारना जे व्यापारो, तेने करे ले, तेमां कीडी प्रमुख जीवोने मारे मरावे बे. ते पचन पाचन वगेरेना आरंजोने पण करे करावे ते. वली केटलाएक दर्शनवाला कंद, मूल, फल, तेना प्रहार करवारूप खोटां तप कररी शुष्क शरीरवाला यायले ने दयाधर्मनो प्रलाप करे ते. अने ते पूर्वोक्त कंद, मूल, फलने विषे जीवपणुं जाणताज नथी. केटलाएक जड पुरुषो तो धर्मने माटे यज्ञना कुंममां निरपराधी एवा बीचारा प्रजा वगेरे पशुउने होमी दीये a. ने प्रापण जेवो कोइ पण तेने जइ पूबे बे, के यावा निरपराधी बी चारा जीवोने या यज्ञकुंममां शामाटे होमी दीयो हो ? अने तेनुं हिंसारूप पाप शा माटे बांधो बो ? त्याऐं ते कहे बे, के या यज्ञकुंममां जे पशु होमवा
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