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३०० जैनकथा रत्नकोष नाग सातमो.
दवे एक दिवसें केवलीनुं वचन याद राखीने ते पद्मोत्तर कुमारने जिन धर्मनो बोध देवा माटें पोताना राज्यपर मंत्रीने बेसारी, ते हरिवेगें काजलना समूह समान, कालो, पीली अने वर्जुलाकार एवी चकुवालो कोमीयोना हारथी अलंकृत, मोहोटी ग्रीवा तथा कपाल युक्त, विशाल नदरवालो, मनोहर हाथ पगवालो, स्थूल देहयुक्त, शब्दायमानथती घुघरमालो तथा लोढानी सांकलोयें करी सहित एवो एक वैक्रिय विद्याथी मिंदडो बनाव्यो. अने पनी मिंदडाना गलामां बांधेली सांकलने हाथमां लश्ने अत्यंत उत्सुक थयो थको ते हरिवेग, पोताना मित्र पद्मोत्तर कुमारना गंजन पुरना चोकमां आवी ऊनो रह्यो. त्यां तो ते नगरनां लो को तथा त्यांना रहेवासी केटलाएक ब्राह्मणो वगेरे एकठा थया अने तेनी पासें एवो महोटो नत्तम मिंदडो जोड़ने ते सर्व हरिवेगने प्रवासा ग्या, के हे पांथजन ! आ मार्जार, तमें मूव्य लश्ने अमने आपशो ? त्यारे हरिवेग बोल्यो के तेना मूल्यनी कां तमने खबर ? त्यारे ते लोकोयें पूब्युं के तेनुं हुं मूल्य ? त्यारे ते बोल्यो के तेनुं मूल्य तो एक लाख दिनार थाय ले ? ते सांजली नागरिकजनो हसीने कहेवा लाग्यां के आ ते तमें बोलो बो झुं ? को ठेकाणे आवा मार्जार, अटलुं बधुं मूल्य होय ? जो तमें विचारी बोलशो तो कोइ पण शे? त्या ते बोल्यो के हे लोको ! गुणोनुं मूल्य बे, पण कां वस्तुनुं मूल्य नथी. मनोहर गुणवालुं काष्ठ ने, ते सपरिमित इव्यना मूल्यवानुं थाय , तथा पाषाण पण गुणें करी कोटि व्यना मूल्यवालो थाय बे. अने जे गुणहीन होय , ते को पण ठेकाणे मूल्य पामतोज नथी. कहेलुं ने के ॥ श्लोक ॥ गुरुदेवब्राह्म गर्षि, हयेनषनाश्मनाम् ॥ वस्त्रादीनां विशेषोस्ति, गुणाऽगुणनवोमहान ॥१॥ अर्थः-गुरु, देव, ब्राह्मण, कृषि, हय, हस्ती,बेल, पबर बने वस्त्रादिक, तेमना गुणपणाथी अने गुणरहितपणाथी महोटो फेर फार होय जे. तेमज मार्जार मारिमां पण महोटो नेद होय . वली सांजलो॥यतः॥ वाजिवारणलोहानां, काष्ठपाषाणवाससाम् ॥ नारीपुरुषतोयाना, मंतरं बदु धांतरं ॥१॥ तथा॥ देवाणय धम्माणय, समणाण य बंनणाण नुवणम्मि ॥ अबिबिसेसो गरुन, नऊ नवरं खु विरलेहिं ॥२॥ अर्थः-अश्व अश्वमां, हाथी हाथीमां, काष्ठकाष्ठमां, पाषाण पाषाणमां, वस्त्र वस्त्रमां, स्त्री स्त्रीमा,