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जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. हो कां न करो काणि के ॥ क० ॥ १७ ॥ वचन अपूर्व सुणी करि, चिंते विस्मित हो केम ए कहे वात के ॥ कहे रे वत्स वेहेंचे हवे, केहनी सा थें हो वेहेंची किहां जात के ॥ क० ॥ १७ ॥ तुम विषु माहारे कुण अने, मुफ विणुं नवि हो तुफ कोई अन्य के ॥ एटला दिन लगें नवि कह्यु, तुक अप्रिय हो में कां अधन्य के ॥ क ॥ १५ ॥ में अविनय तुमने कस्यो, तो मुखथी हो नांखी देखाव के ॥ स्नेहबदथको केम कहे, वहें चणनो हो अकालें पाराव के ॥ क० ॥२०॥ सवि लखमी विलसो तु में, ए लखमी हो सघली ने तुज के ॥ स्नेहवचन जुगतें करी, फरी ते कहे हो नवि वहेंच, मुफ के ॥ क० ॥ २१ ॥ आवी कहे निजनारी ने, मुफ नाइ हो कहे एणि परें वाच के ॥ तव ते त्रटकीने कहे, एह वचने हो कहूँ तुं मत माच के ॥ क० ॥ २२ ॥ वचनें तुऊ ललचावी यो, धूतारा हो बोले मीतां वयण के ॥ शादुकार परें देखीयें, तेहनी गति हो नवि जाणे सयण के ॥ क० ॥ २३ ॥ ___यतः ॥ खलः सक्रियमाणोपि, ददाति कलहं सताम् ॥ उग्धधौतोऽपि किं याति, वायसः कलहंसताम् ॥ ३ ॥ पण जाणुं तुफ मति खसी, घर णीनुं हो जे न करे वयण के ॥ ते यंतें मुखिया होये, ते माटें हो मानो मुक वयण के ॥ क० ॥ २४ ॥ तुं तो नोलो थ रह्यो, कोण मूके हो ह स्तागत जेह के ॥ जो न कहे तुफ इणि परें, केम होवे हो विश्वासनुं गेह के ॥ क० ॥ २५ ॥ तुं सुखें दास पणुं करे, ढुं नवि करुं हुं दासी पणुं कोय के ॥ पण जाणीश अंतें वली, शिशु साथें हो पंचत्व ते जोय के ॥ क० ॥ २६ ॥ दूं तो पीयरमां जइ, रहेगुं सुखें हो नवि कोश्नी आश के ॥ ते सुणि दयिताने कहे, थिर था हो थोडा दिन खास के ॥ का ॥ २७ ॥ एणी परें सातमी ढालमां, कहे मुनिवर हो निज वीतक जेह के ॥ पद्मविजय कहे सांनलो, आगल कहे हो वैराग्य सनेह के ॥क० ॥ २० ॥ सर्व गाथा ॥ २१ ॥ श्लोक तथा गाथा मली ॥१॥
॥दोहा॥ ॥ एक दिन मागे नाग ते, वलि समजावे सोय ॥ श्म नारी बांधव त णे. वचनें मोलित होय ॥ १ ॥ यतः ॥ सुगुणा एह सहावो, अवगुण सिंचंति दियय मयंमि ॥ महिलानामपि नाहो, जाणंति न जंपए जीहा