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२३४ जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. कारीयो ॥ ६ ॥ जि० ॥ कुनय कुसंग कुवास, हास मत्सर नग दारणो॥ जि० ॥ जनम जरा रोग शोग, मरण मोहरिपु वारणो ॥ ७ ॥ जि०॥ सायर सम गंजीर, जव विरहो मुफ आपीयें ॥ जि० ॥ सेवक जाणीस्वा मी, सांसारिक दुःख कापियें ॥ ७॥ जि० ॥ स्तवना करे सुर राय, प्रण मे पाय जिनेसा ॥ जि० ॥ जननी पासें यावी, मूके तेह सुरेसरु ॥ ए ॥ जि ॥ रतन सुवर्ण निधान, पूरे जिनवर धामने ॥ जि० ॥ संहरी ते प्रतिबिंब, पाम्या सद् निज तामने ॥ १० ॥ जि ॥ जनम मोहव विस्तार, जंबू पन्नत्तिथी जाणजो ॥ जि० ॥ लेश मात्र ते अत्र, नविजन मनमा आगजो ॥११॥ जि०॥ दुजाम प्रजात, सहस किरण जबन गीयो ॥ जि०॥ दासी जनरराय, पुत्र जनमथी वधावियो ॥१शाजि॥ तद्यथा ॥ तो पियं वश्य नामेण चेडीतया, पीण थण वट्टयोलंत मुत्ताल या ॥ रय समुस्कित्तपय रणिरमंजीरया, व्हसिय धम्मिन्न तह खिसिय उत्त रियया ॥ हरिसरो मंचविंचश्य वर तलया, सेय जल बिंपुरेदंत मुहपंक या ॥ नर वर पुत्तजम्मेण वदावए, सोवि चेडिए बदु दविषु दावावए ॥ मंतिपुरवि सव्वे विसावए, गुरुयवक्षावणं पुरिपय दावणं ॥१॥ जि० ॥ दासी पणुं करें दूर,समुविजय हवे राजीयो । जि० ॥ इंपूजित जोश्ते
ह, मोचव करे जग गाजीयो ॥ १३ ॥ जि ॥ पश् गेह पयट्टिय चारुम • हं, चंदणरस सित्तसमग्गयहं ॥ पुर रमणि पवित्तिय मंगलयं, वर नट्ट तुह बदु दार लयं ॥ बंदीयण बिहिय कोलाहलयं, दीसंत विचित्त कुकहलयं ॥ नचाविय वदुजण बाहुलयं, उंचुहि वरपूरिय दिसीवलयं । घरि धरिणीब
रुतोरणयं, परिघुम्मिरवामण दासणयं ॥ परितुह नमिर बहुमग्गणयं ॥ अन्य चाल ॥ पवि संत अरकवत्तयं, हीरंतसीसवबयं ॥ वजंत नेरीना गयं, दिजंत नूरि दाणयं ॥ निव६ हट्टसोहयं, सुचंत मदुरगेययं ॥ नु जंतविविह नोजयं, पिजंत नूरिदाणयं ॥ सोहिङ माण चारयं, मुचंतबंदि चारयं ॥ करसोक दंवलियं, सुवस्म कलस सङियं ॥ २ ॥ जि ॥ बारमे दिन हवे राय, मोबव महोटा तिहां करी ॥ जि० ॥ नाम
वे नर नाह, गरन सुपन मनमां धरी ॥१४ ॥ जि० ॥ रिष्टरत्न मयी नेम, सुपन मांही देख्या थकी ॥ जि० ॥ अपमंगल थयां दूर, अथवा इष्ट अस्विकी ॥ १५ ॥जि०॥ अरिष्टनां फलसम श्याम, नाम अरिष्ट नेमी क