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१३४ जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. प्रवहण नांग्युं त्यांही ॥ १ ॥ पुण्यसंयोगें यावि, फलक एक मुफ हाथ ॥ सात दिवस सायर जम्यो, पण ते फलकनी साथ ॥२॥ पाम्यो पार सायर तणो, राजपुरें वली जाय ॥ तेह नगर उद्यानमां, आश्रम एक गुन गय ॥ ३ ॥ दिनकरप्रन नामें वसे, परिव्राजक अनिराम ॥ शांत दांत घणुं देखीयें, धर्मतणुं मानुं धाम ॥ ४ ॥
॥ढाल बारमी॥ ॥ किसके चेले किसके पूत ॥ ए देशी ॥ तेह त्रिदंमी देखी मुक, कहे सांनल कहुँ वात तुज ॥ बाबू मान ले ॥ए आंकणी ॥ तुं केम दुः खीयो एवडो बाज, तुं थाइश महोटो माहाराज ॥ १ ॥ बा० ॥ तेराः ख में खम्या न जाय, मेरा मनमें प्रारति थाय ॥बा०॥ गुरुकी हम हे ऐसी शीख, जपो अलख र जावकीनीख ॥ २॥ बा ॥ कंथा पहेरूं लगा, विनति, परदुःखीये दुःखीयो सुण पूत ॥ बा० ॥ जगकुं सुख तब हमकुं सुख, जग फुःखीयो तब हमकुं दुःख ॥३॥ बा ॥ मायामें सह जग लपटाय, हम तो नित्य निरंजन ध्याय ॥बा०॥ वात कहे वे तेरी जे ह, तुज देखी मुफ थरहरे देह ॥ ४ ॥ बा० ॥ तव प्रणमी कहे चारुदत्त, पाउनी जेटली थइ निज वत्त ॥ बा० ॥ चारुदत्तनां सांजली वयण, अव धूत आंसुं नरियां नयण ॥ ५ ॥ बा॥ रे वत्स तुं हवे धीरो थाय. धीरजें सवि दोलत मले बाय ॥ बा ॥ तें धन अर्थी हे सुण बहोत, धन दे वरा, आव तुं पहोत ॥ ६ ॥ बा ॥ तेरे घरकी दासी होय, लखमी ते म करिये तुं जोय ॥ बा॥ ते सुणी चाल्यो चारुदत्त, लोनीने होय बद्ध लुं सत्त ॥ ७ ॥ बा० ॥ बीजे दिन एक अटवीमांही, पहोतो मन धरतो उन्नाही ॥ बा ॥ तिहां एक पर्वतमांहे जाय, निवड शिला उघाडे पाय ॥ ७ ॥ बा ॥ उर्गपाताल नामें बिल तेह, तेहमां पेगे त्रिदंमी जेह ॥ वा० ॥ जमतां नमतां दीठो कूप, रस थानक महा दारुण रूप ॥णाबा॥ चार हाथनो ते विस्तार, मानुनरकतणुं ए हार ॥ बा० ॥ तुंबडं आपी कहे मुफ एम, सुण कहूं वत्स धरी तुज प्रेम ॥१०॥ बा० ॥ एहमा रस जरीने तुं प्राव, एम कही मंचिकामांही ठाव ॥बा॥ र काली मोकल्यो त्यांहि, मेखला दीठी में तेह मांहि ॥ ११ ॥ बा॥ तिहां रस नरीयो दी गे जोर, लेतां वारे को तिणे तोर ॥ बा० ॥ चारुदत्त छे माहीं नाम,