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दानालय
जैन जगती • अतीत खण्ड
पारस्परिक व्यवहारराजा प्रजा में प्रेम है, सौहार्द है, अनुराग है; द्विज, शूद्र चारों वर्ण में सब प्रेम का ही भाग है। वैषम्य, कुत्सित द्वेष का तो नाम तक भी है नहीं; अपवर्ग भारतवर्ष है, ऐसी न दूजी है मही ।। ३०४ ॥
कार्य-विभाग-- आचार्य धर्माध्यक्ष हैं, क्षत्री सभी रणधीर हैं; हैं विप्र शिक्षक वर यहाँ, अंत्यज कलाधर वीर है। ये वैश्य सब व्यापार में, व्यवसाय में निष्णात हैं; उद्योत आठों याम है, होती न तमभृत रात है ॥ ३०५ ।। नंगे, निरन्नों को यहाँ हैं वस्त्र, भोजन मिल रहे। कहते न उनको दीन हैं, आतिथ्य उनका कर रहे। हो स्वर्ण-युग चाहे भले, पर रंक तो रहता सदा; तम तोम का शुचि दिवसमें भी अंश तो मिलता सदा ॥३०६।।
गवालयआनन्द:०२, चुल्लक ०३, नन्दिनीप्रिय३०४ के घरों को देखिये; बहती वहाँ पयधार है, धृत की दुधारा लेखिये । हा ! आज गौ पर हो रहा हर ठौर खङ्गाघात है; घृत-दुग्ध देती हैं उसी पर हा! कुठाराघात है ॥ ३०७ ॥
विहंग-पश्वालयसब अश्व, गौ, गज, सिंह, मृग अज एक कुलामें रह रहे; पिक, केकि, कोका, सारिका, पन्नग इसी में रह रहे ।
आश्चर्य है, ये किस तरह सारंग पन्नग मिल रहे। उनकी कला वे जानते, वर्णन वृथा हम कर रहे ।। ३०८ ।।