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* जैन जगती
* अतीत खण्ड
हम जैनियों में आज ऐसा एक नहिं विद्वान है, शुकलाल, बेचर हैं; -भला दो से कहीं संमान है ? इतिहास लिखने की कला पर है न उनके पास में; क्यों दाँव दूजों के लगें ऐसे न फिर अवकाश में ! ॥ २२६ ॥
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हमारा राजत्व
राजत्व की भी स्थापना हमने प्रथम जग में करी २३४; नर-धर्म के रक्षार्थ हमने स्थापना इसकी करी । आत्मियों के आत्म का जब रूप हो है एकसा; फिर राव, राजा, रंक में यों भेद होता कौनसा || २३० ॥
हम थे पितात, हर तरह थी पुत्रवत हमको प्रजा; द्विज को न लेने में हिचक थी शूद्र की भी आत्मजा । फिर क्यों प्रजापति को कहो प्यारी प्रजा लगती नहीं ? क्यों मनुज - मानस द्वीप में रस-धार फिर बहती नहीं ? ॥ २३९ ॥
परमार्थ हित राजत्व क्या, अपवर्ग यदि तजना पड़ा
सब कुछ तजा, सुख से दिया यदि प्रारण भी देना पड़ा । हमको न माया-मोह था, राजत्व से नहिं लोभ था;
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राजत्व तजते भूप को होता न कुछ भी क्षोभ था ।। २३२ ॥
राजत्व-वर्त्ती मात्र थे, पर भोग-वर्ती थे नहीं; होते हुये उपलब्ध वैभव लीन वैभव थे नहीं । वह भरत चक्री पुरुषपति कैसा सदाशय भूप था ! होता हुआ वह राज-भोगी राज-योगी भूप था २ ३५ ॥ २३३ ॥
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