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जैन जगती
* अतीत खण्ड
द्वादश हमारे चक्रपाणी विश्व-जय हैं कर चुके अमरेश, किन्नर, देव भी जिनकी चरण-रज छ चुके। इतिहास चाहो आज भी क्रम-बद्ध उनका मिल सके, हँसते रहे जो आज तक, वे सत्य अब क्यों कह सके ? ॥ २२४ ।। फूटे सभी के हैं नयन या भ्रष्ट-मति सब हो गये; शत्रत्व, मत्सर, द्वेष से सब के वचन, मन रंग गये। वे मूर्ख हैं या अज्ञ हैं, प्रत्यक्ष झूठी कह रहे। क्यों बौद्ध-वैदिक धर्म की शाखा हमें बतला रहे ? ।। २२५ ॥
इतिहास जाति विशेष का क्या दूसरी का हो सके ? सम्बन्ध दोनों में रहे हो मान्य इतना हो सके । शाखा किसी मत की नहीं हम सिद्ध अव यह हो गया; अब कौन वैदिक, जैन में है ज्येष्ठ-इतना रह गया ॥ २२६ ॥
निज देश के इतिहास में इतनी पुरानी जाति काउल्लेख कुछ भी हो नहीं-इतिहास वह किस भाँति का ! इतिहास भारतवर्ष के तुम आधुनिक सब देख लो; उनमें तनिक भी है नहीं वर्णन हमारा लेख लो ।। २२७ ।।
श्रीमंत, दानी, वीर, नृप हममें अनंता हो गये; विद्या, कला-कौशल सभी के ज्ञान-धारी हो गये। इतने नरों में से हमारे लेख्य क्या कोई नहीं ? -पर द्वेष से मतभ्रष्ट किसकी हो भला सकती नहीं !! ॥ २२८ ।।