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जैन जगती FaceRRESIDE
* अतीत खण्ड
चित्र-कलावह चित्र-कौशल आज हा ! नरके न कर में रह गया; कर में भला कैसे रहे ? कल में विचारा पिस गया ! चल-चित्र चलते देख कर अब हम अचम्भित हो रहे; पड़कर चमक के चक्र में हम भूल अपने को रहे । ।। २०६ ॥ खलु चित्र-प्रिय हम थे सभी, बिन चित्र गृह था ही नहीं, उन मंदिरों का चित्र-धन हम कह सके-सम्भव नहीं। प्रत्यक्ष था या चित्र था, कुछ था पता चलता नहीं; थे चित्र२३० चलते-बोलतेभ्रम क्यों भला फिर हो नहीं ? ॥२१०॥ प्रेमी मनुज को प्रिय-प्रिया की याद जो आती नहीं; यह चित्र-कौशलकी कला निःसृत कभी होती नहीं। हम भक्त दृढ़ थे ईश के, परिवार से अनुराग था; बढ़ता गया लाघव, यथा बढ़ता गया शुचि राग था ।। २११ ।।
सूर्ति-कलाकरते न आविष्कार यदि हम मूर्ति जैसी चीज का; मिलना कठिन होता अभी कुछ धर्म के भो बीज का। हो प्राण व्याकुल मूर्ति में है देखते भगवान को; यह मूर्ति है भगवान की, यह शास्त्र है अज्ञान को ।। २१२ ।। हमको मनोविज्ञान का होता न यो सद्ज्ञान रे ! शिव भाव लाना मूर्ति में क्या है कभी आसान रे ? रस-धार करुणा प्रेम की रे ! मूर्ति से बहती रहें; वह भव्य भावोद्भाविनी तन, मन, वचन हरती रहें ।। २१३ ॥