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*जैन जगती
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अतीत खण्ड*
सब भाँति भक्तों के लिये यह मूर्ति ही आधार है; योगीजनों के तो लिये भगवान यह साकार है । कितना रसद लगता हमें है चित्र अपने बन्धु का; फिर क्यों न सबको हो सुखद यह बिम्ब करुणासिन्धु का || २१४ ||
भगवान कायोत्सर्ग में कैसे मनोहर लग रहे ! शिव भाव- सरवर बिम्ब-तल पर क्या सुभग लहरा रहे ! वर्षा सुधा की दर्शकों के ये हृदय पर कर रहे; पाषाण उर के भाव - प्रस्तर भाव पंकज कर रहे ।। २१५ ।।
संगीत-कला
संगीतमय जड़-जीव हैं, संगीतमय सब लोक हैं; संगीतका तो मनुज तो क्या, इन्द्र तक को शौक है । अवहेलना हम इस कला की कर न सकते थे कभी; संगीत, कीर्तन, नृत्य से विभु को रिझाते थे सभी ।। २१६ ।। गंधर्व २३१ सारी जाति का संगीत ही व्यापार था; इसने किया जग में प्रथम संगीत - आविष्कार था । यदि मात्र पल भर के लिये यह स्वर- कला कल-भग्न हों; हत् कान्ति बस हो जायगी यह भूमि भारत नग्न हो ॥ २१७ ॥
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संगीत बिन नाटक, सभा, परिषद अलोनी दोखती; हम देखते हैं तान पर धुनती मृगी शिर दीखती । संगीत पर उन पूर्वजों ने प्रन्थ गहरे हैं लिखे; संगीत जीवन- मित्र है जग-चर-अचर का हे सखे ! ॥ २१८ ॥