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________________ जैन जगती * प्रतीत खण्ड विद्वान थे, गुणवान थे, तप-दान में हम शूर थे; हम नीति, नय, विद्या-कला में अधिकतर मशहूर थे। हमने किसी को युद्ध का पहले निमंत्रण नहिं दिया; यमराज ने हम से अकड़ कर अन्त अपना ही किया ॥ १३४ ॥ पर ये नपुशक आज के निंदा हमारी कर रहे; बकाल, बणिया ये हमें मुँह वक्र करक कह रहे । संतोष इतने से नहीं पर हाय ! इनको हो रहा; भारत अहिंसावाद से ये कह रहे हैं. रो रहा ॥ १३५॥ गजराज को भी भुंकता कुक्कुर सदा लेखा गया; ये सब समय के चक्र से सब काल में पेखा गया। गांधी'२० अहिसा-सत्य पर है जोर कितना दे रहे जग-शान्ति के सिद्धान्त इनको वे हमार कह रहे ।। १३६ ।। हमारी प्राचीनता उन पर दया आती हमें जो बौद्ध १२१ हमको कह रहे है कौन-सा आधार वह जिस पर हमें यों कह रहे । 'हम बौद्धमत की शाख हैं' थे मूख जो कहने लगे; वे मत नये अब देख कर हैं देखलो छिपने लगे ॥ १३७ ॥ पुस्तक' २२ पुरातन देखिये, इनमें हमारा लेख है; श्रुति वेद में, स्तोत्रादि में भी उल्लिखित कुछ लेख है। संतोष फिर भी हो नहीं, मनु-नीति को भी देख लो; गीता, महाभारत कथित तुम सार पहिले लेख लो ॥ १३८ ।। २८
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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