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जैन जगती
अतीत खण्ड
आस्ट्रेलिया अरु एशिया, यूरोप, अरबीस्थान को, दुनिया नयी, अरु अफ्रीका, ईराक अरु ईरान को१९हम पूर्व तुम से जा चुके, इतिहास देखो खोल कर। तुमने नया है क्या किया दुनिया नयी को खोज कर ? ॥१२६।। जो तुम पुराने ग्रंथ कुछ भी नेत्र-भर भी देख लो; संबंध कैसे थे हमारे-तुम परस्पर पेखलो । हम भूप थे, वे थीं प्रजा, थे प्रेम-बन्धन जुड़ रहे हो बहन भाई धर्म के ज्यों, रस परस्पर जग रहे ।। १३० ।। सम्पन्न होकर भी नहीं हम भोग में आसक्त थे, हम दान जीवन दे रहे थे, आप जीवन-मुक्त थे । जीवन-मरण के तत्त्व सारे थे करामल हो रहे; सत्कर्म करने में तभी हम इस तरह थे बढ़ रहे ।। १३१ ॥ हम आदि करके कर्म को थे मध्य में नहिं छोड़ते; सागर हमारा क्या करे ! हम शुष्क करके छोड़ते। हम पर्वतों को तोड़ कर समतल धरा कर डालते; भू , अनल, नभ, वायु, जल आदेश नहिं थे टालते ।। १३२ ।। परमार्थ हित ही थे हमारे कर्म सारे हो रहे; मैत्रिम्यता पर इस तरह से थे नहीं हम मर रहे । यूरोप के अब देश जो उन्नत कहे हैं जा रहे, वे क्या कभी बतलायँगे किस देश के अनुचर रहे ।। १३३ ।।