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जैन जगती,
अतीत खण्ड
आदर्श मुनि श्राचार्य ऐसे हैं अनंता हो गये। जिनके सुयशके चिह्न कुछ तो रह गये, कुछ खो गये। वे आज के आचार्य से दंभी कुरागी ये नहीं; वाचाल, भोजक द्वप-सेवी इस तरह वे थे नहों ।।८४॥ अभित्याग उनका धम था, संयम मनोहर कर्म था, शुचिःशील-परिपालन रहा उनका सदा ही वम था। वे सहन कर उपसर्ग भी विचरण सदा करते रहे, गिरते हुये को स्थान पर थे वे सदा धरते रहे ।। ८५ ॥ उनके यशस्वी तेज से आलोकयुत हम आज हैं; उनकी दया से विश्व में हम मान पाते आज हैं। हम गर्वयुत हैं कह रहे-ऐसे न जग में साधु हैं; पूर्वज हमारे हैं श्रमण, पूर्वज हमारे साधु हैं ।। ८६॥
आदर्श स्त्रियाँ कैसी यहाँ की नारियें थीं-सहज ही अनुमान है; नर-रत्न जब इनको कहो, अनमोल नर की खान है। ज्यों चन्द्र के विस्तार से होती अधिक है चन्द्रिका नर-चन्द्र की जग-व्योम-तल प्रसरित हुई त्यों चन्द्रिका ।। ८७ ।। कंथानुगामी थों सभी वे लाजवंती नारिये; पतिदेव को प्राणेश थीं वे मानती सुकुमारियें । वे सौख्य में उपदेशिका, लक्ष्मो-स्वरूपा थीं सभी, पति से नहीं वे दौख्य में पर भिन्न होती थीं कभी॥८॥