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जैन जगती
अतीत खण्ड
सहयोग उनका था सदा प्रति मानवोचित कर्म में; थीं रोकती जाते हुए नर को सदा दुर्वत्म में । सम भाग जो नर-कर्म में इनका न यदि होता कहीं; वह भूत भारतवर्ष का गौरव-भरा होता नहीं ।। ८८ ॥ शुचि शील के शिव ताप से पावक बदल जल हो गया १; ज्यों-ज्यों दुशासन चीर खींचे चीर त्यों त्यों बढ़ गया। आदेश से उनके कहो क्या कुष्ट नहिं था मिट सका; श्रीपाल का कुष्टी बदन कंचन नहीं क्या बन सका 3 ?॥०॥
पति दुःखमोचन के लिये थी आप शैव्या९४ बिक गई; तारा ५ कुसुमबाला कहो किस देश में हैं हो गई ? वे संग रहकर कंथ के रणमें सदा लड़ती रहीं; थी निज करोंसे पुत्र, पति को भेजती रण में रहीं॥११॥
प्रत्यक्ष मानों देवियाँ थीं, ऋद्धियाँ मृत वर्ग की; आनंद घरमें मिल रहा था, चाह नहिं थी स्वर्ग की। सुर-स्थान की संप्राप्ति में अपमान हम थे जानते; जब हो रहे थे मोक्ष पद के कर्म-क्यों नहिं मानते ? ॥१२॥
चल चालिनी से भी सुभद्रा सींचती जल है अहो! . चढ़ती अनल को भी शिवा ८ उपशाम करती है अहो! काटे हुए भी हाथ जिसके फिर यथावत हो रहे९९,! इन शील-प्राणा नारियों के गान घर घर हो रहे ।। ६३ ।।