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® जैन जगती amavasa
७ अतीत खण्ड ®
प्राचार्य ५६ पंचेन्द्रियें थी हाथमें, त्रय गुप्तिमय व्यवहार थे; क्रोधादि के सब थे विजेता, शीलयुत आचार थे। व्यवहार, पंचाचार उनके, समिति उनकी देख लो; सौजन्य का इनकी क्रिया में रूप अन्तिम पेख लो ।। ७४ । गंभीरता, दृढ़ता, मधुरता, निष्कपटता, शौर्य्यता, शुचि शीलता, मृदुता, सदयता, सत्यता, ध्रुव धैर्य्यता। कितनी गिनाऊँ आपको मैं आर्य-जन-आदर्शता; कैसे भरूँ मैं वर्ण में अर्णव बतादो तुम पता ।। ७५ ।
श्रादर्श आचार्य आदर्श थे आचार्य ऐसे-वे दिवस भी एक थे; हम थे अखिल ! आचार्य सुर-नर-वंदिता अखिलेश थे। श्री आर्य खपुटाचार्य५७ कैसे धर्म के दिग्पाल थे; नत चेत्य गौतम बुद्ध का यह कह रहा-सुरपाल थे॥७६ गुरुवर स्वयंप्रभ५८ रत्नप्रभ५९ आचार्य कुल-अवतंस हैं; श्रीमालपुर, उपकेशपुर जिनके सुयशध्वज-अंश हैं। थे आर्य समिताचार्य जिनका नाम अब भी ख्यात है; जिनको अचल, सर, नद, नदी होते न बाधक-ज्ञात है ।। ७७ श्रीवत्रसेनाचार्य ,मुनिवर रत्न २,कोविद चन्द्र 3 से; आदर्श थे मुनिवर यहाँ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ४ से। ये थे चमकते चन्द्रवत जब जैन-जगती-व्योम में; जाज्वल्यता का लास था, जग था न तब तम-तोम में ॥ ७८