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जैन जगती Becaceak
अतीत खण्ड
हे बंधुओं इन पूर्वजों का मान करना सीख लो; गुण, भाव इनके देखकर अनुकार करना सीख लो। ये धर्म की शिव कर्म की थी ज्योतिधर प्रतिमूर्तियें; इनके उरों में थी अहिंसा की तरंगित उर्मियें ॥ ६ ॥ कैसे प्रसारक धर्म के ये धर्म-केतन हो गये; किनमें ? कहाँ तुम ढूँढते ? ये रत्न तुम में हो गये। ये त्याग के, वैराग्य के आदर्श अनुपम रख गये; जग से नहीं कुछ लेगये, जग को अमर धन दे गये ॥७॥ त्रिम्य इन में आज का-सा नाम को भी था नहीं; यों बन्धु-रिपु की भावना इनके उरों में थी नहीं। आध्यात्म-सर के ये सभी नित पद्म रहते थे खिले सबके लिये इनके हृदय के द्वार रहते थे खुले ।। ७१ ।।
अरिहंत ५४ विचरण जहाँ इनका हुआ सुख-शान्ति-रस सरसा गया; योजन सवासौ प्रांत में दुखमूल जड़ से उड़ गया। दश चार लोकालोक के सुर, इन्द्र इनको पूजते; पैंतीस गुणयुत वचन में अरिहंत के स्वर फूंजते ॥७२॥
सिद्ध ५ ये अष्ट कर्मों का भयंकर काट दल आगे बढ़े त्रयरम-धारी ये हमारे मोक्ष पद पर जा चढ़े। अपवर्ग से ये पुरुष वर क्या लौट कर फिर आयँगे ? उजड़े हुये क्या देश को आबाद फिर कर जायँगे १ ।। ७३ ।।