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जैन जगती. भविष्यत् खण्ड , श्रीमन्त हो दक्षिण, सुकल, हो भक्त भारतवर्ष के सब श्रील हो, सब हो धनी,सब हो निमिष उत्कर्ष के। सब हो अपावृत, जाल्म,-तिर्यक-दीर्घसूत्री हो नहीं; हो ऊर्ध्वरेता, क्षान्त हम अति, संकसुक हम हों नहीं ।।२०५॥ हम में न कोई हो मलीमस, बीध्र हम होवें सभी; शठ, जड़, पिशुन हम हों नहीं, आदर्श नर होवें सभी। वंचक, अणक हम हों नहीं, निर्णिक्त हों, हम पूत हों; हम दान्त हों, हम शान्त हों, गुणभूत हों, अवधूत हों ॥२०६।। सुकुमार काई हो नहीं, पृथु, पीन भी हों हम नहीं; हम स्वस्थ, पुष्कल हों बली, हों कर्म में अमनस नहीं। कोई न मार्गण, निःस्व हो. सब स्वावलम्बी धीर हों: स्वप्नक, परांमुख हो नहीं, हम पुरुष पुगम, वीर हो ।।२०७।। सर्वत्र हो विद्या कला प्रसरित हुई इस देश में, हिन्दी यहाँ हो राष्ट्र भाषा हिन्दु हों हम वेष में। द्विज शूद्र में अति प्रेम हो; पति-पत्रि में जाम्पत्य हो; गृहस्थ सभी का हो सुग्वद, गुणवान सब अपत्य हो ।।२०८। वह भूत भारतवर्ष अब यह वृद्ध भारतवर्ष हो; समृद्धि हो वह भूत-सी, वह भूत-सा उत्कर्ष हो। भारत हमारा इष्ट हो, राष्ट्रीयता से राग हो; हम धर्म-वर्ती होंचल, नव जन्म हो, नव जाग हो ॥२०॥
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