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जैन जगती
विनय
विनय हम पुण्य-शाली अब नहीं, भारत महाशय अब नहीं ! हे पतितपावन वृषभ-ध्वज ! पावन हमें कर दीजिये। हम दृढ़ हृदय वैसे नहीं, वैसे महोत्साही नहीं ! वारण पते ! करुणानिधे ! अवलम्ब सत्वर दीजिये। हम पददलित हैं, अज्ञ हैं, दाक्षिण्य हम सब भाँति हैं ! हे अश्व-ध्वज ! करके दया हमको अचिर अपनाइये। बहुप्रद हमारा देश था, दीर्घायु थे हम भी यहाँ ! निःस्वत्व हमको देखकर, कुछ कीश-ध्वज ! दिलवाइये ॥ होतं यहाँ थे हृष्ट मानस, भोग से थे दुर्मनस ! अब हाय ! विषयासक्त हैं, हे क्रौंचवेत ! बचाइये । दक्षिण, सुकल थे, श्रील थे, अब कुंठ मानस हो गये ! मायावरण हमसे कृपालो ! कंजकेत! हटाइये। चिश्रुत रहे हम आज तक, हम थे सभी कृतलक्षणा ! स्वस्तिक-पते! अब हैं दुखी, श्रीमन्त फिर कर दीजिये। स्वामी रहे हम विश्व के, अव-ध्वस्त हम हा ! आज हैं ! हे चन्द्र-ध्वज ! दुर्गत हमारी यह अभी हर लीजिये ।। हम थे अपावृत एक दिन, हम विश्व के विश्वेश थे ! परतांध्य के इस दुर्ग से हे मच्छ-ध्वज ! छुड़वाइये। आपन्न भारतवर्ष है, अब अन्न का भी कष्ट है ! भीवच्छकेतो! कर दया कुछ अन्न तो दिखलाइये ।।
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