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जैन जगती
* भविष्यत् खण्ड.
तीर्थ ये तीर्थ पावन धाम हैं, मात्सर्या का क्या काम है ; द्विज, शूद्र दोनों के लिये ये तीर्थ सम सुखदाम हैं। द्विज ! साम्प्रदायिक पंक से पंकिल इन्हें तुम मत करो; दर्शन निमित आये हुए नहि शूद्र को वर्जित करो ॥१७०।। एकत्र अगणित कोप का करना यहाँ अब व्यर्थ है; इनमें करोड़ों हैं जमा, उपयोग क्या ? क्या अर्थ है ? हे बन्धुओ ! तुम कोर्ट में इनके लिये अब मत बढ़ो; अब लड़ चुके तुम बहुत ही, आगे कृपा कर मत बढ़ो ॥१७१।।
मन्दिर पण्ड पुजारी अब विधर्मी वैतनिक रहने न दो ; गणना तुम्हार मंदरों की अब अधिक बढ़ने न दो। यों पतित होकर भक्त-जन हैं भृत्य-पद पर आगये; हा ! घन-घटा से भृत्यगण सर्वत्र देखो छागये ॥१७२।।
विद्या-प्रेम यों शिक्षणालय खोलने की धुन तुम्हारी योग्य है; शिक्षा-प्रणाली पर तुम्हारी ध्यान देने योग्य है । शिक्षापरायण शिक्षणालय एक इनमें हैं नहीं; सब साम्प्रदायिक अड हैं, विद्या-परायण हैं नहीं ।।१७।। विद्या-भवन में विष भरा शिक्षण न विद्यादान दो; विद्यार्थियों को अब नहीं ऐसा अपावन 'ज्ञान दो। बालक अधूरा ज्ञान में घर का न कोई घाट का; वह हाट में भी क्या करें, नहिं ज्ञान जिसको बाट का ॥१०
दामन
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