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________________ जैन जगती •मविष्यत् खण्ड ® *3000000 यो दुर्व्यवस्थित शिक्षणालय आज से रक्खो न तुम; अतिरिक्त विद्याभाव के कुछ दूसरा रक्खो न तुम । शिक्षक अधूरे हो नहीं, सब ज्ञान-गरिमागार हो; कौशल-कला-विज्ञान का विद्याभवन भण्डार हो ॥१७॥ हर ग्राम में चटशाल हो, गुरुकुल तथा पठशाल हो; ऐसा न कोई ग्राम हो, जिसमें न विद्याशाल हो। शुचि पुण्य भावों से भरा संचालकों का वर्ग हो; आदर्श विद्याप्रेम हो तो क्यों न भारत स्वर्ग हो ।।१७६।। स्त्री-शिक्षा अब नारी-शिक्षण आज से अनिवार्य तुम नरवर ! करो; अमराज्ञता को आज इनकी नरवरो! नश्वर करो। नररत्नगर्भाकुन्तला की जाड्यता अप-हृत करो; नर सम्यपूर्णा श्यामला का मनुज हो, रक्षण करो ॥१७॥ जब से करी अवहेलना यों आपने स्त्री-जाति की; दुर्दैव की चालें तभी से फल रहीं हर भाँति की । सुत सूर मूर्खा नारिये किस भाँति से फिर दे सकें, जब धार कुण्ठित हो गई, तलवार क्या भक् ले सके ? १७८।। कर दो हमारी दवियों को शिक्षिता वर पंडिता; फिर जाति आपोआप ही हो जायगी चिर मण्डिता। संसार-जीवन-शकट के नर, नारि ये दो चक्र हैं: हो एक दृढ़ दूजा अबल, अवरुद्धगति रथ-चक्र है ॥१६॥ १८२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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