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छ जैन जगती भविष्यत् खण्ड 8 जिन मण्डलों का काम खलु भोजन कराना मात्र है। सर्वत्र वे लेखे गये उपहास के ही पात्र हैं !
आज्ञा दलाधिप की नहीं उनके लिये कुछ चीज है; विग्रह, वितण्डावाद के लेखे गये वे बीज हैं ! ।।१६।। ये एक विगलित पेटिका हित तोड़नं पेखे गयेउन मण्डलों को जो कि जिनवर नाम से लेखे गय ! पदनाण ये पहिने हुए भोजन परोसेंगे तुम्हें ! परिचय उचित निज इस तरह देते रहेंगे ये तुम्हें ॥१६६।। ऐसे विषम वातावरण में सभ्य मण्डल चाहिए; दम्भी लवण-तस्कर, हटी नहिं सभ्य छ, दल,-बल चाहिए । जो ब्रह्म-वर्ती है सदा आदर्श वह ही सभ्य है; अभिजात मण्डल है वही अभिजात जिसके सभ्य हैं ।।१६७।। संख्या अधिक गुण्ड जनों की हाय ! इनमें पायगी ! तुम देख लेना मण्डली अपध्वस्त होकर आयगी। अतएव ऐसे मण्डलों को तुम कुचल दो एक दम ; अभिजात तुम आगे बढ़ो, आगे बढ़ो तुम दो कदम ॥१६८।। उद्योग धन्धों के लिये तुम जाति से जगड़ा करो; उन्मूल करतो हो प्रथा-माया, उसे भेदा करो। सौहार्द हो, हो प्रेम शुचि, सुन्दर परस्पर भाव हो; हो शिक्षिता नारी यहाँ-मंण्डल ! तुम्हारे दाँव हो ॥१६॥
8 सदस्य।
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