SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ जैन जगती * भविष्यत् खण्ड * ग्रन्थकर्ता हे ग्रन्थकर्ता मनिषियो ! नव शास्त्र-रचना मत करो; अनुचित प्रथाएँ रश्म पर अब ग्रन्थ निर्मापित करो । करने लगेंगे यदि भला पर्याप्त ये ही शास्त्र हैं; शास्त्रानुशीलन फिर सिखा दो, हम दया के पात्र हैं || १३०|| स्वाध्याय पूर्वक तुम लिखो इस आधुनिक विज्ञान पर; तुम ग्रन्थ कितने भी लिखो यूरोप अरु जापान पर । यह आधुनिक कौशल - कला भर दो सभी तुम ग्रन्थ में; बाधा न होवे फिर हमें बढ़ते हुए को पन्थ में ॥ १३१ ॥ अनूदित प्राकृत का सभी साहित्य होना चाहिए; जिसमें न हो अनूदित भाषा वह न बचनी चाहिए । उन्मूल होते वाक्कलन की इस तरह जड़ दृढ़ करो; आधार सब कुछ आप पर साहित्य को विश्रुत करो ॥१३२॥ शिक्षक शिक्षक ! तुम्हारे हाथ में सब राष्ट्र की शुभ आश है; निज देश का, निज जाति का शिव धन तुम्हारे पास है । कितना बड़ा दायित्व है, अब आप ही तुम लेख लो ? बनते हुए आदर्श तुम आदर्श शिक्षा दे चलो ॥१३३॥ शिक्षित अभी कुछ भी नहीं इनको बढ़ाओ रात दिन; इसके लिये हो आपका तन, मन, वचन, सर्वस्व धन । हे शिक्षको ! तुम शिशु गणों की अज्ञता अपहृत करो; शिक्षित इन्हें करते हुए तुम जाति को उपकृत करो || १३४ || १७३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy