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® जैन जगती • भविष्यत् खण्ड
PROGRecem इस साम्प्रदायिक जाल को कविता तुम्हारी तोड़ दें, पारस्परिक रण-द्वेष का सम्पूर्ण ढाँचा तोड़ दें, बल, ज्ञान, बुद्धि; विवेक दे, तन में अनूठा प्राण दें;अवसर पड़े पर मर्त्य जिससे प्राण तक का दान दें ।।१२।।
लेखक अब उदर-पोषण के लिये लेखक ! लिखो नहिं लेख तुम; सब की निगाहें आप पर, दो रूप तृष्णा पेख तुख । तुमको विदित है जाति की जो हो रही हाँ दुर्दशा; कर दें न उसको ओट में कुत्सा बुभुक्षा कर्कशा ॥१२६।। लेखक गणों ने क्या किया, तुम जानते हो रूप में ? था बोलसेविक कर दिया सब रूष भर को निमिष में। तुम भी लिखो अब लेख ऐसे तन-पलट हो पलक में; उत्थान लेखों से तुम्हारे अचिरतम हो खलक में ॥१२५॥ तुम साम्प्रदायिक भाव से लिखना न कोई लेख अब; मृत को जिलाने के लिये अब चाहिए उल्लेख सब । है कार्य लेखक का कठिन, अनबूझ इसको छोड़ दें; लेखक-कला उसको मिलें जो प्राण व्रत में छोड़ दें ॥१२८।। ऐसे लिखो अब लेख तुम जिनका असर तत्काल हो; आलस्य,विषया भोग हित जो सप्तफणिधर व्याल हो। अवसर पड़े डस जाय चाहे आपको ये व्याल भी; यदि बढ़ चुके हो अन तुम, पीछे हटो नहिं बाल भी ॥१२॥
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