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R जैन जगती ® वर्तमान खण्ड *
PROGRArch ऐसा पतित गार्हस्थ्य-जीवन आज विभुवर ! हो गया! हा ! स्वर्ग-सा गाहस्थ्य सुख कर अब तपन-सा हो गया ! अब पुत्र की निज तात में श्रद्धा न है, वह भक्ति है ! माता-पिता की सुत, सुता पर भी न वह अनुरक्ति है !२६०॥ घर में न जब हा ! प्रेम है, बाहर भला कैसे बने ! हे नाथ ! ये कंटक-सदन चिर सुख-सदन कैसे बने ! फैला दिया अपना कलह ने एक विध साम्राज्य है ! शुचि प्रेम, श्रद्धा, भक्ति का अब हा ! न वह सुर-राज्य है ॥२६॥
छाया सघन तरु फूट की कच सघन हम पर छा गई ! पाताल में, ऐसा लग जड़ हो सुधारस पा गई। तम तोम में आलोक की आछन्न किरणें हो गई ! ये मिल गए भू-व्योम ऐकाकार जगती हो गई ।। २६२ ॥ इस फूट में वह जोर है, जो जोर निधि में है नहीं; माता कहीं तो सुत कहीं, पत्ता पिता का है नहीं ! घर, राष्ट्र इसने आज तक कितने उजड़ हैं कर दिये ! इसको जहाँ अवसर मिला वृश्चिक वहीं हैं भर दिए ।। २६३ ।। ये बन्धुओ ! कलिराज के शस्त्रास्त्र के अभ्यास हैं ! तुमको हिताहित सोचने का पर न हा! अवकाश है! तुम संगठन के सार से मायाविनी को खोद दो; जड़ फूट की तुम खोद कर जड़ प्रेम की तुम रोप दो ॥२६४॥