________________
-
जैन जगती
ॐ वर्तमान खण्ड
प्रातिथ्य-सेवा आतिथ्य, सेवा-धर्म को तुमने न जाना आज तक ! सत्कार अपना ही किया है हाय ! तुमने आज तक ! अपने उदर की भरण-विधि तो श्वान भी सब जानते ! जो भी नरानाहूत हो भिक्षुक उसे तुम मानते ।। २६५॥ जिस जाति में आतिथ्य-सेवा भावनायें हैं नहीं; मानवपना कहते किसे, उसने न देखा है कहीं !
आये हुए का द्वार पर जब मान तुम नहिं कर रहे; कंजूस, निर्मम, बेहया अतएव तुमको कह रहे !! ॥ २६६ ।। तुम खा रहे हो सामने, सुख ऐश तुम हा ! कर रहे; मारे क्षुधा के रो रहा वह, पर न तुम हा ! लख रहे ! अभ्यर्थना, आतिथ्य तुम अपने जनों को कर रह ! कोई अपरिचित आगया मनुहार तक नहीं कर रहे !! २६७ ॥
दान भूपेन्द्र नरपति मेघरथ कैसे सुदानी हो गये ! हरने क्षुधा वे श्येन की भी थे तुलास्थित हो गये! देते हुये अब दान कौड़ी निकल जात प्राण हैं ! क्या काम रे ! धन पायगा,तन में न जिस दिन प्राण हैं!॥२६॥ सिगरेट, माचिस, पान में तुम हो करोड़ों खो रहे । पर दीन, दुग्विया बन्धु को देते हुये हो रो रहे ! तुम जैन हो या वर्णशंकर जैन के, तुम कौन हो ? उन पूर्वजों की तो प्रजा नहिं दीखते, तुम कौन हो ? ॥२६॥ * नर + अनाहूत = अनिमंत्रित अतिथि।
१४१