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जैन जगती,
७ वर्तमान खण्ड जिस जाति का यह ध्येय है, उसके न दुर्दिन आयँगे; उसके विगत सुख के दिवस भी लौट कर फिर आयेंगे, जिस दिन हमारी जाति का सिद्धान्त यह बन जायगासोया हुआ यह देश भारतवर्ष फिर उठ जायगा ।। २८५॥
अन्ध-परंपरा अब भक्ति में भी गंध कुत्सित काम की बढ़ने लगी ! दुर्लभ जहाँ पर दर्श थे अब नारियाँ चढ़ने लगीं ! 'पथभ्रष्ट गुरुजन हो गये श्रद्धा न पर किंचित घटी ! पथभ्रष्ट अनुचर हो गये, अतएव है अब तक पटी ॥ २८६ ।। हा ! पितृ, धर्माचार्य रे ! सब दोष-पाकर हो गये ! मंदिर हमारे पूज्य भी हा! मदन-मन्दिर हो गये; जिस ओर देखो उधर ही सब भाव विकृत हो गए ! हत् धैर्य हा ! हत् ब्रह्म-व्रत, हत् धर्म हम हा ! हो गये ॥२८॥ त्यागी बने जो छोड़ कर संसार, माया, मोह को !-- अपना रहे क्यों हाय ! वे फिर मान, ममता, कोह को! . माता, पिता, जाया, सुता, सुत, शिष्य, गुरु संशोध्य हैं; बढ़ती हुई इनमें हमारी अंध ममता रोध्य है ॥२८॥
गृह-कलह पति पनि से नहिं बोलता, पति से न भार्या बोलती ! सुत तात से नहिं बोलता, माता न सुत से बोलती ! श्वश्रू बहू लड़ती परस्पर कुत्तियों-सी आज हैं ! भाभी ननद लड़तों यहाँ हा! धर्षिणी-सी श्राज हैं !! ॥२८॥
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