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जैन जगती Back
वर्तमान खण्ड ®
बेकारी कितने युवक, नर प्रौढ़ हा ! बेकार होकर फिर रहे ! हत् धैर्य होकर हाय ! क्या अपघात वे नहिं कर रहे ! उनकी अकिचन प्रार्थनाएँ क्यों नहीं स्वीकार है ? वे योग्य हैं हर भाँति से, फिर क्यों उन्हें धिक्कार है ? ॥२८॥ भोजन मिला कल प्रात को--चौबीस घंटे हो गये ! दो मास पहिले भेट थे शिशु दो क्षुधा की हो गये ! है मूच्छिता माता पड़ी, नव जात शिशु मूच्छित पड़ा ! स्तम्भित खड़े पति पाश म, ज्यों हो कहीं पत्थर गड़ा! ॥२८॥ वह जाति जिसके नर, युवक बेकार हैं, क्षयशील है; उस जाति के तन में पतन के बीज ही गतिशील हैं। यह आग ऐसी आग है, इस-सी न दूजी आग है; यह जल उठी जिस भाग में, वह भस्म ही भूभाग है ।। २८२ ।। यह भी पतन के कारणों में एक कारण मुख्य है। तुम जानत हो जाति की आत्मा युवकजन मुख्य है; इनके पतन में पतन है, उत्थान में उत्थान है यह प्रौढ़ बल जिसमें नहीं, वह जाति भी निष्प्राण है ।। २८३ ॥ हा ! बहुत कुछ अब भी हमारे पाश में अवशिष्ट है; हम हैं, युवक है, काम हैं, धन भी प्रचुर उच्छिष्ट है ! इस हिंद के प्रत्येक जन को काम मिलना चाहिए; यह आग कोई युक्ति से उपशाम करना चाहिए ॥ २८४ ॥
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