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जैन जगती.
ॐ वर्तमान खण्ड * बाजार माणिक-क्रोप था हा ! शाह जी अरबेश थे ! अमरावती थी हाटशाला, शाह जी अमरेश थे ! मखमल, जरी खाशा स्वदेशी हाट के सामान थे ! भर कर स्वदेशी माल को जाते सदा जलयान थे ! ॥२७॥
अब तो विदेशी माल के ये शाह जी मध्यस्थ हैं ! अपने स्वदेशी माल के रे! शत्रु ये प्रथमस्थ हैं ! कैसी विदेशी माल से इनकी सजी सब हाट है ! घोषित दिवाले कर चुके, पर हाट में सब ठाट है ॥२७६।।
नेता हमारे देश के नारे लगाते ही रहे ! कारण विदेशी माल के वे जेल जात ही रहें ! सहता रहे यह देश चाह यातनाएँ नित कड़ी ! ये तोड़ने हा! क्यों लगे प्यारी प्रिया सम सुख-घड़ी ॥२७॥
ये हम, चाँदी द रहे, पाषाण लेकर हँस रहे ! नकली विदेशी माल से यों देश अपना भर रहे ! अपने हिताहित का न होता नाथ! इनको ध्यान क्यों! इनके उरों में देश पर अनुराग है जगता न क्यों !! ॥२७॥ मेरे विभो ! इनको घृणा क्यों देश से यों होगई ! अथवा विपद के भाव से मत भ्रष्ट इनकी होगई ! तुम क्यों न चाहे जैन हो, पर देश यह है आपका !-- जिस भाँति से सम्पन्न हो यह, काम वह है आपका ||२७||
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