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जैन जगती
वर्तमान खण्ड
साहित्य अब आधुनिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए; साहित्य युग का चित्र है-आनयन लखना चाहिए । साहित्य-सरवर था कभी शुचि पद्म भावों से भरा; हा ! आज वह अश्लील है अपवित्र भावों से भरा ।। १८५।। युग, जाति का साहित्य ही बस एक सच्चा चित्र है; जिसका न हो साहित्य वह होती अकिचन मित्र ! है। साहित्य जीवन-मंत्र है, साहित्य जीवन-प्राण है; साहित्य ही सर्वस्व है, उत्थान की सोपान है ।। १८६ ।। साहित्य में नव वृद्धि तो होती न कुछ भी दीखती; कुल भ्रष्ट करने की उसे कोशीष अविरल दीखती। कुछ इधर से, कुछ उधर से हा! अपचयन हैं कर रहे-- विद्वान, हा ! निज नाम से पुस्तक प्रकाशित कर रहे ॥१८७|| साहित्य मौलिक आज का कौतुक, कबड्डी खेल है; निर्बोध बच्चों का तथा यह धर-पकड़ का खेल है। नहिं शब्द-वैभव श्लिष्ट है, नहिं भाव रोचक हैं यहाँ; रस, अर्थ का पत्ता कहीं मिलता न हमको है यहाँ ।। १८८ ।। मस्तिष्क होते थे हमारे भक्ति-भावों मे भरे ! चारित्र, दर्शन, ज्ञान के निझर सदा जिनसे झरे ! त्यागी, विरागी, धर्म-ध्वज जिनके सदा श्रादर्श थे ! आध्यात्म-तृष्णा के लिये रस-स्रोत वे उत्कर्ष थे !!! ॥ १८ ॥
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