________________
जैन जगती
ॐ वर्तमान खण्ड ®
शृङ्गार के निर्भर प्रवाहित आज पर वे कर रहे ! संसार में सौन्दर्य का अश्लील चित्रण कर रहे ! इन मस्तकों को देख कर हमको निराशा हो रही! ज्ञानेन्द्रियों का कोप होगा रत्न-भृत क्या भो ! नहीं ? ।। १६० ।।
हा ! भूरि संख्यक ग्रंथ, पुस्तक रात दिन हैं छप रहे; इनके लिये ही आज कितने छापेखाने चल रहे । व्यय द्रव्य अगणित हो रहा, पर लाभ कौड़ी का नहीं ! मैले, अरोचक भाव है ! है ग्रन्थ जोड़ी का नहीं ! ॥ २६१ ॥
हो चोर, लम्पट, धृष्ट, वंचक, मूर्य, स्वर, मार्गोन्मुग्वी, कामी, कुचाली, द्रोह-प्रिय अरु सर्वथा धर्मोन्मुग्बी। पर इन नरों के आज जीवन हैं प्रकाशित हो रहे ! साहित्य में हा! हा! अपावन ग्रंथ संमिल हो रहे !! ॥१६॥
आख्यायिकोपन्यास हम भी अन्य सम हैं रच रहे; लिखना न आता है. हमें, प्रतियोग पर हम कर रहे ! यों दुपित संस्कृति कर रह फैला दुपित वातावरण ! हम काम-पूजन कर रह रति-भाव का कार अवतरण ।। १६३ ।।
त्यक्ता, कुचाली, सुन्दरी, रति-रूपसी, मन-मोहिनी, प्रिय-प्रेयसी, पुर-भामिनि, अभिसारिका, जन-सोहिनी ! कवि, लेखकों की ये सभी उल्लेखनीया नायका ! फिर क्यों न पढ़ कृति आपकी पथ-भ्रष्ट हो कवि शायका !! ॥१६४।।