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जैन जगती
ॐ वर्तमान खण्ड
साहित्य-प्रेम साहित्यिकों का भाव तो हा ! क्यों भला होने लगा; दो एक हो उनसे हमारा अर्थ क्या सरने लगा ! वे भी अगर होते कहीं शशि, सूर तो संतोष था! जिनवर्ग कोई काल में हा! एक कोविद-कोष था !!! ॥ १८० ॥ साहित्यका आनन्द हमको हाट में ही रह गया ! हा ! नव सृजन साहित्य का अब बाट में ही रह गया ! विद्वान कोई हाट पर यदि भाग्य से आ जायगा; दुत्कार के वह साथ में दो बाट मुह पर खायगा !!! ॥१८शा ऐसी निरक्षर जाति में विद्वान् फिर कैसे बढ़ें ! साहित्य-दुर्गम-शृङ्ग पर हा जाति यह कैसे चढ़े ! लिखना हम निज नाम भी पूरा अहो! आता नहीं ! साहित्य से फिर प्रेम करना किस तरह आता कही ? ||१८२।। साहित्य जीवन-गीत है; साहित्य जीवन-प्राण है, साहित्य युग का चित्र है, साहित्य युग का त्राण है; साहित्य ही सर्वस्व है, साहित्य सहचर इष्ट है; साहित्य जिसका है नहीं, जीवन उसीका क्लिष्ट है।। १८३॥ साहित्य जैसी वस्तु पर जिसकी उपेक्षा दृष्टि हो; ऐसा लगे-उस पर हुई अब काल की शुभ दृष्टि हो। साहित्य जैसी चीज का भी क्या अनादर योग्य है ? हे बन्धुओ! अब क्या कहूँ मिलता न अक्षर योग्य है !!! ॥१८४||