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जैन जगती,
ॐ वर्तमान खण्ड क्षण मात्र में तुम देख लो इनकी जवानी सो गई; अब दिन बसंती हैं नहीं, पतझड़ इन्हें है हो गई। वे नाज-मुजरे मर गये, सहचर मरे सब साथ मे; धन, मान, पत सब उड़ गये, भिक्षा रह गई हाथ में ! ।। ७५ ॥ इनके परन्तु महापतन का मूल झर झरता कहाँ ? चटशाल जाने से इन्हें थी रोकती माता जहाँ। ऐसे पिता-माता महारिपु हैं, उन्हें धिक्कार है: क्या नाथ ! सब यह आपको अब हो रहा स्वीकार है ?॥७६ ।। नैया हमारी क्या भँवर से ये निकालेंगे अहो ! क्या बुद्धि पर शिल पड़ गये ? बक क्या रहे हो रे ! अहो! इस भाँति की संतान से उत्थान क्या हो पायगा ? हो जायगा-काया-पलट इनका अगर हो जायगा ॥७॥
निर्धन
जिन जाति ! तेरी हाय ! यह कैसी बुरी गत हो गई ! हा! चन्द्रिका से क्यों बदल काली श्रमा तू हो गई ! हे बन्धुओ ! यह क्या हुआ ! क्या तुम न चेतोगे अभी! हे नाथ ! दिन वे चन्द्रिकायुत क्या न लौटेंगे कभी !! ॥७॥ पचास प्रतिशत पूर्व निर्धन हूँ तुम्हें मैं कह चुका; पर दैन्य, क्रन्दन, दुर्दशा का कुछ न वर्णन कर सका ! कहने लगा अय हाय ! क्या आवाज तुम तक आयगी ! प्रासाद-माला चीर कर क्या क्षीण-लहरी जायगी !!|||
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