________________
जैन जगती वर्तमान खण्ड ये भी कहाते सेठ हैं, पर पेट भरता है नहीं; स्वीकार ईनको मृत्यु है, दैन्यत्व स्वीकृत है नहीं। निर्लज्ज होकर तुम मरो, ये लाज से मरकर मरें; तुम खूब खाकर के मरो, हा ! ये तुधित रहकर मरें !॥८॥ जिस जाति में श्रीमन्त हों-कैसे वहाँ धनहीन हों! दयवंत हैं धनवंत यदि--कैसे वहाँ पर दीन हों! मनहंत पर जिन जाति के श्रीमन्त जन हैं दीखते; फिर क्यों न निधन बन्धु उनके ठोकरों में दीखतं !! ॥१॥ कहते इन्हें भी सेठ हैं अरु शाह-पद अभिराम है; बकाल, बणिया, बणिक भी इनको मिले उपनाम हैं। क्या अर्थ है श्रीमन्त को इस ओर क्यों देखें भला; देखें इधर कुछ अगर वे-छू मंत्र हो जावे बला ॥२॥
श्रीमंत के आराम के ये दीन ही दृढ़ धाम हैं; उनके मनोरथ काम के सब भाँति ये तरु काम हैं। इस हेतु ही शायद इन्हे वे हीन रखना चाहते द नीम इनकी-महल को मंजिल उठाना चाहते ॥३॥
निर्धन विचारे एक दिन श्रीमन्त यदि बन जायँगे; दस-पाँच कन्या का हरण श्रीमंत फिर कर पायेंगे? बालक कुँवारे निधनों क जन्म भर फिरत रहे! उस वार ,नो-नो पाणि-पीड़न शाह जी करते रहे !! ॥८४॥