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जैन जगती
अतीत खण्ड
इनको न व्यय की है कमी, इन पर पिता का प्यार है। भट, भाण्ड, भड़वे, धूर्त इनके मित्र-संगी-यार हैं। शतरंज, जूश्रा, ताश के कौतुक अहिर्निश लेख लो; कल कण्ठियों से गूंजते प्रासाद इनके पेख लो !! ॥ ७० ॥ मेले, महोत्सव, पर्व पर इनके नजारे देखिये; चल-चाल नखरे नाज इनके उस समय अवलोकिये। हा ! जैन-जगती ! यह दशा होती न जानी थी कभी; संतान की ऐसी दशा होती न जानी थी कभी !! ॥७१ ॥ पढ़ना-पढ़ाना सीखना तो निर्धनों का काम है; सच पूछिये तो पठन-पाठन ब्राह्मणों का काम है। होकर बड़े इनको कहीं भी नौकरी करनी नहीं; तब पुस्तकों में फिर इन्हें यों श्रम वृथा करनी नहीं !! || ७२ ।।
यौवन जहाँ इनको हुआ, बस भूत मानों चढ़ गया; प्रत्येक इनके अङ्ग में बस काम जाग्रत बन गया। हर बात में, हर काम में बस काम इनको दीखता; हा! पत्नि, भावज, बहन में अंतर न इनको दीखता!!॥७३॥
संगीत के ये हैं कलाविद, नर्तन-कला आती इन्हें; निज प्रेयसी के काम में नहिं शर्म है आती इन्हें । लेकर प्रिया ये साथ में नाटक सिनेमा देखते तात्पर्य मेरा है यही-जग काममय ये लेखते !!॥ ७४॥
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